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श्रमण-धर्म हमारे मन में इन्द्रियों के विषयों के प्रति जो रागद्वेष के भाव उत्पन्न होते हैं उनका नियमन किया जाय । उत्तराध्ययनसूत्र एवं आचारांगसूत्र में इसका पर्याप्त स्पष्टीकरण किया गया है । संक्षेप में श्रमण (मुनि) का यह कर्तव्य माना गया है कि वह अपनी पांचों इन्द्रियों पर संयम रखे और जहाँ भी संयम मार्ग से पतन की संभावना हो, वहां इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति का संयम करे। जिस प्रकार कछुवा संकट की स्थिति में अपने अंगों का समाहरण कर लेता है, उसी प्रकार मुनि भी संयम के पतन के स्थानों में इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति का समाहरण करे ।२ जो मुनि जल में कमल के समान इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति को करते हुए भी उनमें लिप्त नहीं होता वह संसार के दुःखों से मुक्त हो जाता है ।
बौद्ध एवं वैदिक परम्परा में इन्द्रिय-निग्रह-बौद्ध-परम्परा में भी भिक्षु के लिए इन्द्रिय-संयम आवश्यक माना गया है । धम्मपद में बुद्ध कहते हैं कि आँख का संयम उत्तम है, कान का संयम उत्तम है, घ्राण और रसना का संयम भी उत्तम है। शरीर और वचन तथा मन का संयम भी उत्तम है । जो भिक्षु सर्वत्र सभी इन्द्रियों का संयम रखता है वह दुःखों से मुक्त हो जाता है। संयुत्तिनिकाय में कछुवे की उपमा देते हुए बुद्ध कहते हैं कि कछुवा जैसे अपने अंगों को अपनी खोपड़ी में समेट लेता है, वैसे ही भिक्षु भी अपने को मन के वितर्कों से समेट ले ।५
वैदिक परम्परा में भी संन्यासी के लिए इन्द्रियसंयम आवश्यक है । गीता में स्थितप्रज्ञ मुनि के लक्षण में कहा गया है कि जिसकी इन्द्रियाँ वशीभूत हैं वही स्थितप्रज्ञ है। गीता भी जैन और बौद्ध परम्पराओं के समान कछुवे का उदाहरण देते हुए कहती है कि ज्ञाननिष्ठा में स्थित संन्यासी कछुवे के समान अर्थात् जैसे कछुवा भय के कारण सब ओर से अपने अंगों को संकुचित कर लेता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण विषयों से अपनी इन्द्रियों को समेट लेता है और तब ही उसकी बुद्धि स्थिर कही जाती है। गीता भी इन्द्रियसंयम का अर्थ इन्द्रियों के विषयों के प्रति होने वाले राग-द्वेष के भावों का निग्रह ही मानती हैं। इस प्रकार जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराएँ मुनि के लिए इन्द्रियसंयम को आवश्यक मानती हैं। परीषह
परोषह-शब्द का अर्थ है कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना । यद्यपि तपश्चर्या १. देखिए-उत्तराध्ययन अध्ययन, ३२ । आचारांग, २।१५।१।१८० । २. सूत्र-कृतांग, १८।१।१६ ।
३. उत्तराध्ययन, ३२।९९ । ४. धम्मपद, ३६०-३६१ ।
५. संयुत्तनिकाय, ११२।७ । ६. गीता, २०६१ ।
७. वही, २१५८। ८. वही, २०५९, ६४ ।
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