________________
३५८
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
संन्यासी को बिना जीवों को कष्ट पहुँचाये चलना चाहिए । महाभारत के शान्तिपर्व में भी मुनि को त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा को बचाकर ही गमनागमन की क्रिया करने का उल्लेख है । भाषासमिति के सन्दर्भ में भी दोनों परम्पराओं में विचारसाम्य है । मनु का कथन है कि मुनि को सदैव सत्य ही बोलना चाहिए । २ महाभारत के शांति पर्व में भी वचन-विवेक का सुविस्तृत विवेचन है । " मुनि की भिक्षावृत्ति के सम्बन्ध में भी वैदिक परम्परा के कुछ नियम जैन परम्परा के समान ही हैं । वैदिक परम्परा में भिक्षा से प्राप्त भोजन पांच प्रकार का माना गया है ( १ ) माधुकर - जिस प्रकार मधुमक्खी विभिन्न पुष्पों से उन्हें कोई कष्ट दिए बिना मधु एकत्रित करती है उसी प्रकार दाता को कष्ट दिए बिना तीन, पांच या सात घरों से जो भिक्षा प्राप्त की जाती है वह माधुकर है, (२) प्राक्प्रणीत —-शयन स्थान से उठने के पूर्व ही भक्तों के द्वारा भोजन के लिए प्रार्थना कर दी जाती है और उससे जो भोजन प्राप्त होता है, है, (३) अयाचित - भिक्षाटन करने के लिए उठने के निमन्त्रित कर दे, (४) तात्कालिक - संन्यासी के करने की सूचना दे दे और (५) उपपन्न - मठ में में माधुकर भिक्षावृत्ति को ही श्रेष्ठ माना गया है। जैन परम्परा की वैदिक परम्परा में भी स्वीकृत की गई है । संन्यासी को भिक्षा के एक ही बार जाना चाहिए और वह भी तब, जब कि रसोईघर से हो चुका हो, अग्नि बुझ चुकी हो, बर्तन आदि अलग रख दिये गये हों । निक्षेपण और प्रतिस्थापना समिति के सन्दर्भ में कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता, फिर भी इतना निश्चित है कि वैदिक परम्परा का दृष्टिकोण इस सम्बन्ध में जैन परम्परा का विरोधी नहीं है । इन्द्रियसंयम
वह प्राक्प्रणीत
पूर्व ही कोई भोजन के लिए पहुँचते ही जब कोई ब्राह्मण भोजन लाया गया पका भोजन । इन पाँचों
मधुकरी - भिक्षावृत्ति
लिए गाँव में केवल धुंआ निकलना बन्द
जैन आचार-दर्शन में इन्द्रियसंयम श्रमण जीवन का अनिवार्य कर्तव्य माना गया है । यदि मुनि इन्द्रियों पर संयम नहीं रखेगा तो वह नैतिक जीवन में प्रगति नहीं कर सकेगा । क्योंकि अधिकांश पतित आचरणों का अवलम्बन व्यक्ति अपने इन्द्रिय-सुखों की प्राप्ति के लिए ही करता है । उत्तराध्ययनसूत्र में इसका सविस्तार विवेचन है कि किस प्रकार व्यक्ति इन्द्रिय-सुखों के पीछे अपने आचरण से पतित हो जाता है ।" इन्द्रिय-संयम का यह अर्थ नहीं है कि इन्द्रियों को अपने विषयों के ग्रहण करने से रोक दिया जाय वरन् यह है कि १. मनुस्मृति, ६।४०, देखिए, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ४९२, ४९४, महाभारत शां०, ९।१९ ।
२. मनुस्मृति, ६।४६ ।
३. महाभारत शां०, १०९।१५-१९ ।
४. देखिए - धर्मशास्त्र का इतिहास, पृ० ४९२, महाभारत शां० ९।२१-२४ ।
५.
देखिए - उत्तराध्ययन, अध्ययन ३२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org