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________________ श्रमण-धर्म ३५७ "भिक्षुओ, भिक्षु आने-जाने में सचेत रहता है, देखने-भालने में सचेत रहता है। समेटनेपसारने में सचेत रहता है । संघाटी, पात्र और चीवर धारण करने में सचेत रहता है। पाखाना-पेशाब करने में सचेत रहता है । जाते, खड़े होते, बैठते, सोते, जागते, कहते, चुप रहते सचेत रहता है । भिक्षुओ, इस तरह भिक्षु सम्प्रज्ञ होता है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि बुद्ध पाँचों समितियों का विवेचन कर देते हैं। विनयपिटक में एवं सुत्तनिपात में भी अनेक आदेश इस सम्बन्ध में उपलब्ध हैं। मुनि की आवागमन की क्रिया विषय में विनयपिटक में उल्लेख है कि मुनि सावधानीपूर्वक मन्थर गति से गमन करे । गमन करते समय वरिष्ठ भिक्षुओं से आगे न चले, चलते समय दृष्टि नीचे रखे तथा जोर-जोर से हँसता हुआ और बातचीत करता हुआ न चले । सुत्तनिपात में मुनि की भिक्षा वृत्ति के सम्बन्ध में बुद्ध के निर्देश उपलब्ध हैं। वे कहते हैं कि रात्रि के के बीतने पर मुनि गाँव में पैठे, वहाँ न तो किसी का निमन्त्रण स्वीकार करे न किसी के द्वारा गाँव से लाये गये भोजन को; न मुनि गांव में आकर सहसा विचरण करे; चुपचाप भिक्षा करे और (भिक्षा के लिए) किसी भी प्रकार का संकेत करते हुए कोई बात न बोले । यदि कुछ मिले तो अच्छा है और न मिले तो भी ठीक, इस प्रकार दोनों अवस्थाओं में अविचलित रहकर वापस वन की ओर लौटे। गूंगे की तरह मौन हो, हाथ में पात्र लेकर वह मुनि थोड़ा दान मिलने पर उसकी अवहेलना न करे और न दाता का तिरस्कार करे । भिक्षु असमय में विचरण न करे, समय पर ही भिक्षा के लिए गांव में पैठे। असमय में विचरण करनेवाले को आसक्तियां लग जाती हैं, इसलिए ज्ञानी पुरुष असमय में विचरण नहीं करते हैं। धम्मपद एवं सुत्तनिपात में मुनि की भाषा-समिति के सम्बन्ध में भी उल्लेख है। धम्मपद में कहा है कि जो भिक्षु वाणी में संयत है, मितभाषी है तथा विनीत है वही धर्म और अर्थ को प्रकाशित करता है, उसका भाषण मधुर होता है । सुत्तनिपात में भी इसी प्रकार अविवेकपूर्ण वचन नहीं बोलना चाहिए और विवेकपूर्ण वचन बोलना चाहिए, इसका निर्देश है । इस प्रकार बुद्ध ने चाहे समिति शब्द का प्रयोग न किया हो, फिर भी उन्होंने जैन परम्परा के समान ही आवागमन, भाषा, भिक्षा एवं वस्तुओं का आदान-प्रदान व मलमूत्र विसर्जन आदि का विचार किया है। बुद्ध के उपर्युक्त वचन यह स्पष्ट कर देते हैं कि इस सम्बन्ध में उनका दृष्टिकोण जैन परम्परा के निकट है। वैदिक परम्परा और पांच समितियां-वैदिक परम्परा में भी संन्यासी को गमनागमन की क्रिया काफी सावधानीपूर्वक करने का विधान है । मनु का कथन है कि १. संयुत्त निकाय, ३४।५।१७। . २. विनयपिटक, ८।४।४ । ३. सुत्तनिपात, ३७।३२-३५ । ४. वही, २६।११। ५. धम्मपद, ३६३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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