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________________ ३५६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन धानीपूर्वक उठाना या रखना जिससे किसी भी प्राणी की हिंसा न हो, आदान निक्षेपण समिति है । मुनि को वस्तुओं के उठाने-रखने आदि में काफी सजग रहना चाहिए । मुनि सर्वप्रथम वस्तु को अच्छी तरह देखे फिर उसे प्रमार्जित करे और उसके पश्चात् उसे १ उपयोग में लेवे। ५. मलमूत्राविप्रतिस्थापना समिति-आहार के साथ निहार लगा ही हुआ है । मुनि को शारीरिक मलों को इस प्रकार और ऐसे स्थानों पर डालना चाहिए जिससे न व्रत भंग हो और न लोग ही घृणा करें। मुनि के लिए परिहार्य वस्तुएँ निम्न है-मल, मूत्र, कफ, नाक एवं शरीर का मैल, अपथ्य आहार, अनावश्यक पानी, अनुपयोगी वस्त्र एवं मुनि का मृत शरीर । भिक्षुक इन सब परिहार्य वस्तुओं को विवेकपूर्वक उचित स्थानों पर ही डाले। परिहार के हेतु निषिद्ध स्थान-परिहार के हेतु निषिद्ध स्थान दो दृष्टियों से माने गए हैं-(१) व्रतभंग की दृष्टि से और (२) लोकापवाद की दृष्टि से । व्रतभंग की दृष्टि से मुनि नाली, पाखाने, जीवजन्तुयुक्त प्रदेश, हरी घास, कंदमूलादि वनस्पति से युक्त प्रदेश, खदान और नई फोड़ी हुई भूमि पर मल मूत्र आदि का विसर्जन न करे, क्योंकि ऐसे स्थानों पर मल-मूत्र आदि का विसर्जन करने से जीव-हिंसा होती है और साधु का अहिंसा महाव्रत भंग होता है। लोकापवाद की दृष्टि से भोजन पकाने के स्थान, गायबैल आदि पशुओं के स्थान, देवालय , नदी के किनारे, तालाब, स्तूप, श्मशान, सभागृह, उद्यान, उपवन, प्याऊ, किला, नगर के दरवाजे, नगर के मार्ग तथा वह स्थान जहाँ तीन-चार रास्ते मिलते हों, मनुष्यों का आवागमन होता हो, गाँव के अति निकट हो ऐसे स्थानों पर मल-मूत्र आदि का विसर्जन नहीं करना चाहिए। मुनि को मल-मूत्र आदि अशुचि का विसर्जन करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वह इस प्रकार डाला जावे कि जिससे शीघ्र ही सूख जावे और उसमें कृमि की उत्पत्ति की संभावना न रहे । सामान्यतया इस हेतु कंकरीली, कठोर, अचित्त और खुली हुई धूपयुक्त भूमि ही चुनना चाहिए। उसे ऐसे स्थानों पर भी मल-मूत्र आदि का विसर्जन नहीं करना चाहिए कि उसके मल-मूत्र आदि को दूसरे मनुष्यों को उठाना पड़े। इस प्रकार उसे मल-मूत्र आदि के विसर्जन में काफी सावधानी और विवेक रखना चाहिए । बौद्ध-परम्परा और पांच समितियाँ-बौद्ध-परम्परा में यद्यपि समिति शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुआ है जिस अर्थ में जैन-परम्परा में व्यवहृत है। फिर भी समिति का आशय बौद्ध परम्परा में भी स्वीकृत है । संयुत्तनिकाय में बुद्ध कहते हैं, १. उत्तराध्ययन, २४।१४ । ३. आचारांग, २।१०। २. वही, २४।१५। ४. उत्तराध्ययन, २४।१७-१८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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