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________________ श्रमण-धर्म ३५५ प्रकार करना चाहिए, इसका विवेक रखना ही एषणा-समिति है। एषणा का एक अर्थ खोज या गवेषणा भी है। इस अर्थ की दृष्टि से आहार, पानी, वस्त्र एवं स्थान आदि विवेकपूर्वक प्राप्त करना एषणा-समिति है । मुनि को निर्दोष भिक्षा एवं आवश्यक वस्तुएँ ग्रहण करनी चाहिए । मुनि की आहार आदि ग्रहण करने की वृत्ति कैसी होनी चाहिए इसके संबंध में कहा गया है कि जिस प्रकार भ्रमर विभिन्न वृक्षों के फूलों को कष्ट नहीं देते हुए अपना आहार ग्रहण करता है उसी प्रकार मुनि भी किसी को कष्ट नहीं देते हुए थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करे।' मुनि की भिक्षाविधि को इसीलिए मधुकरी या गौचरी कहा जाता है। जिस प्रकार भ्रमर फूलों को बिना कष्ट पहुँचाये उनका रस ग्रहण कर लेता है या गाय घास को ऊपर-ऊपर से थोड़ा खाकर अपना निर्वाह करती है, वैसे ही भिक्षुक को भी दाता को कष्ट न हो यह ध्यान रखकर अपनी आहार आदि आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए। भिक्षा के निषिद्ध स्थान-मुनि को निम्न स्थानों पर भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए:-१. राजा का निवासस्थान, २. गृहपति का निवासस्थान, ३. गुप्तचरों के मंत्रणा-स्थल तथा ४. वेश्याओं के निवासस्थान के निकट का सम्पूर्ण क्षेत्र क्योंकि इन स्थानों पर भिक्षावृत्ति के लिए जाने पर या तो गुप्तचर के संदेह में पकड़े जाने का भय होता है अथवा लोकापवाद का कारण होता है । भिक्षा के हेतु जाने का निषिद्ध काल-जब वर्षा हो रही हो, कोहरा पड़ रहा हो, आंधी चल रही हो, मक्खी-मच्छर आदि सूक्ष्म जीव उड़ रहे हों, तब मुनि भिक्षा के लिए न जाये । इसी प्रकार विकाल में भी भिक्षा के हेतु जाना निषिद्ध है। जैन आगमों के अनुसार भिक्षुक दिन के प्रथम प्रहर में ध्यान करे, दूसरे प्रहर में स्वाध्याय करे और तीसरे प्रहर में भिक्षा के हेतु नगर अथवा गाँव में प्रवेश करे । इस प्रकार भिक्षा का काल मध्याह्न १२ से ३ बजे तक माना गया है। शेष समय भिक्षा के लिए विकाल माना गया है। भिक्षा की गमनविधि-मुनि ईर्यासमिति का पालन करते हुए व्याकुलता, लोलुपता एवं उद्वेग से रहित होकर वनस्पति, जीव, प्राणी आदि से बचते हुए मन्द-मन्द गति से विवेकपूर्वक भिक्षा के लिए गमन करे। सामान्यतया मुनि अपने लिए बनाया गया, खरीदा गया, संशोधित एवं संस्कारित कोई भी पदार्थ अथवा भोजन ग्रहण नहीं करे । ४. आदान भण्ड निक्षेपण समिति -मुनि के काम में आने वाली वस्तुओं को साव १. दशकालिक, १।२। ३. वही, ५।११९, १६ ।। ५. उत्तराध्ययन, २६।१२ । २. वही, ११४। ४. वही, ५।१८। ६. दशवैकालिक, ५।१।१-२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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