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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
मारने के लिए शस्त्र आदि की मन में इच्छा ही करना चाहिए। वरन् शांतिपूर्वक निर्भय होकर गमन करना चाहिए ।
१२. दिगम्बर परम्परा के अनुसार मुनि को मार्ग में चलते समय यदि धूप से छाया में या छाया से धूप में जाना पड़े तो अपने शरीर का मोरपिच्छि से प्रमार्जन करके ही जाना चाहिए। - इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन मुनि को आवागमन की क्रिया इस प्रकार संपादित करनी चाहिए कि उसमें किसी भी प्रकार की हिंसा की संभावना न हो। ईर्यासमिति की इस समग्र विवेचना में प्रमुख दृष्टि अहिंसा महाव्रत की रक्षा ही है। हाँ, जैन परम्परा यह भी स्वीकार करती है कि यदि आवागमन की क्रिया आवश्यक हो और उस स्थिति में अहिंसा का पूर्ण पालन संभव न हो तो अपवाद मार्ग का आश्रय लिया जा सकता है।
२. भाषा-समिति-विवेकपूर्ण भाषा का प्रयोग करना भाषा-समिति है। मुनि को सदोष, कर्मबन्ध कराने वाली, कर्कश, निष्ठुर, अनर्थकारी, जीवों को आघात और परिताप देनेवाली भाषा नहीं बोलनी चाहिए; वरन् घबराये बिना, विवेकपूर्वक, समभाव रखते हुए, सावधानीपूर्वक बोलना चाहिए। मुनि को अपेक्षा, प्रमाण, नय और निक्षेप से युक्त हित, मित, मधुर एवं सत्य भाषा बोलना चाहिए । वस्तुतः वाणी का विवेक सामाजिक जीवन की महत्त्वपूर्ण मर्यादा है। बर्क का कथन है कि संसार को दुःखमय बनानेवाली अधिकांश दुष्टताएं शब्दों से ही उत्पन्न होती हैं । वाणी का विवेक श्रमण और गृहस्थ दोनों के लिए आवश्यक है । श्रमण तो साधना की उच्च भूमिका पर स्थित होता है. अतः उसे तो अपनी वाणी के प्रति बहुत ही सावधान रहना चाहिए। मुनि कैसी भाषा बोले और कैसी भाषा न बोले, इसकी विस्तृत चर्चा सत्य महाव्रत के संदर्भ में की जा चुकी है।
३. एषणा-समिति-एषणा का सामान्य अर्थ आवश्यकता या चाह होता है । साधक गृहस्थ हो या मुनि, जबतक शरीर का बन्धन है, जैविक आवश्यकताएं उसके साथ लगी रहती हैं। जीवन धारण करने के लिए आहार, स्थान आदि की आवश्यकताएँ बनी रहती हैं। मुनि को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति याचना के द्वारा किस
१. विस्तृत विवेचना एवं प्रमाण के लिए देखिए(अ) आचारांग, २।३ ।
(ब) दशवकालिक, ५।३-६ । (स) मूलाचार, ५।१०५-१०९ । २. देखिए-आचारांग, २।४।१३३-१४०, दशवैकालिक, अध्ययन, ७ । ३. अमरवाणी, पृ० १०७ ।
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