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________________ श्रमण-धर्म ३५३ १. ईर्या-समिति-प्राणियों की रक्षा करते हुए सावधानीपूर्वक आवागमन की क्रिया करना ईर्या-समिति है। श्रमण के लिए यह आवश्यक है कि उसकी आवागमन की क्रिया इस प्रकार हो जिसमें यथासंभव प्राणिहिंसा न हो । सामान्यरूप से श्रमण को चार हाथ आगे की भूमि देखकर चलना चाहिए तथा दिन में ही चलना चाहिए सूर्यास्त के पश्चात् नहीं, क्योंकि यदि वह सामने देखकर नहीं चलेगा और रात्रि में आवागमन की क्रिया करेगा तो उसमें प्राणिहिंसा की सम्भावना रहेगी। मुनि के लिए चलते समय बातचीत करना, पढ़ना, चिंतन करना आदि क्रियाएँ भी निषिद्ध हैं । यदि वह उपर्युक्त क्रियाएँ करते हुए चलेगा तो वह सावधानीपूर्वक आवागमन नहीं कर सकेगा। कहा गया है कि मुनि को चलते समय पांचों इन्द्रियों के विषयों तथा पांचों प्रकार के स्वाध्यायों को छोड़कर मात्र चलने की क्रिया में ही लक्ष रखकर चलना चाहिए ।२ आचारांगसूत्र में इसकी विस्तार से चर्चा है। नीचे उसी आधार पर कुछ प्रमुख नियम प्रस्तुत हैं १. चलते समय सावधानीपूर्वक सामने की भूमि को देखते हुए चलना चाहिए । २. चलते समय हाथ-पैरों को आपस से टकराना नहीं चाहिए । ३. भय और विस्मय तजकर चलना चाहिए । ४. भाग-दौड़ न करके मध्यम गति से चलना चाहिए । ५. चलते समय पांवों को एक दूसरे से अधिक अन्तर पर रखकर नहीं चलना चाहिए। ६. हरी वनस्पति, तृण-पल्लव आदि से एक हाथ दूर चलना चाहिए । ७. प्राणियों, वनस्पति और जल जीवों की हिंसा की संभावना से युक्त छोटे रास्ते से न चलकर इनसे रहित लम्बे मार्ग से ही जाना चाहिए । ८. यदि वर्षा के कारण मार्ग में छोटे-छोटे जीव-जन्तु और वनस्पति उत्पन्न हो गई हो, अंकुर फूट निकले हों तो मुनि भ्रमण रोक कर चातुर्मास अवधि तक एक ही स्थान पर रहे। ९. वर्षा ऋतु के पश्चात् भी यदि मार्ग जीव, जन्तु और वनस्पति से रहित न हो तो मुनि भ्रमण प्रारम्भ न करे । १०. सदैव निरापद मार्गों से ही गमन करना चाहिए । जिन मार्गों में चोर, म्लेच्छ एवं अनार्य लोगों के भय की सम्भावना हो अथवा जिस मार्ग में युद्धस्थल पड़ता हो उन मार्गों का परित्याग करके गमन करना चाहिए । ११. यदि प्रसंगवशात् मार्ग में सिंह आदि हिंसक पशु या चोर, डाकू आदि दिखाई दें तो भयभीत होकर न पेड़ों पर चढ़ना चाहिए, न पानी में कूदना चाहिए और न उन्हें १, उत्तराध्ययन, २४१७ ।। __ २, वही, २४।८। २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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