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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
प्रयोग किया है। दोनों परम्पराओं में शाब्दिक अन्तर भले हो, लेकिन मूल मन्तव्य दोनों परम्पराओं का एक ही है । अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध ने तीन शुचि भावों एवं तीन प्रकार के मौन के रूप में वस्तुतः जैन परम्परा की तीन गुप्तियों का ही विधान किया है । बुद्ध कहते हैं - भिक्षुओ, ये तीन शुचि भाव हैं । शरीर की शुचिता, वाणी की शुचिता, मन की शुचिता । भिक्षुओ, आदमी प्राणीहिंसा से विरत रहता है, चोरी से विरत रहता है, कामभोग संबंधी मिथ्याचार से विरत रहता है, यह शरीर की शुचिता है । भिक्षुओ, आदमी झूठ बोलने से विरत रहता है, चुगली खाने से विरत रहता है, व्यर्थ बोलने से विरत रहता है, इसे वाणी की शुचिता कहते हैं । भिक्षुओ, आदमी निर्लोभी होता है, अक्रोधी होता है तथा सम्यक दृष्टि वाला होता है, यह मन की शुचिता है ।" वस्तुतः इस प्रकार बुद्ध भी श्रमण साधक के लिए मन, वचन और शरीर की अप्रशस्त प्रवृत्तियों को रोकने का निर्देश करते हैं ।
वैदिक परम्परा और गुप्ति - वैदिक परम्परा में संन्यासी के लिए त्रिदण्डी शब्द का प्रयोग हुआ है । दत्त का कहना है कि केवल बांस के डंडी के धारण से कोई संन्यासी या त्रिदण्डी नहीं हो जाता । त्रिदण्डी वही है जो अपने आध्यात्मिक दण्ड रखता है 13 वस्तुतः तीन आध्यात्मिक दण्डों का तात्पर्य मन, वचन और शरीर के नियंत्रण से ही है । जैन परम्परा में भी इस प्रकार के नियंत्रण के लिए दण्ड शब्द का प्रयोग हुआ है । त्रिदण्डी शब्द का मूल आशय यही है । मन, वचन और शरीर की क्रियाओं का नियमन करनेवाला ही त्रिदण्डी है ।
जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं में शाब्दिक दृष्टि से चाहे अन्तर हो, लेकिन मूल मन्तव्य यही है कि श्रमण अथवा संन्यासी को मन, वचन और शरीर की अप्रशस्त प्रवृत्तियों का नियमन करना चाहिए ।
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पाँच समितियाँ -समिति शब्द की व्याख्या सम्यक् प्रवृत्ति के रूप में की गयी है । समिति श्रमण - जीवन की साधना का विधायक पक्ष है । उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार समितियाँ आचरण की प्रवृत्ति के लिए हैं । श्रमण जीवन में शरीर धारण के लिए अथवा संयम के निर्वाह के लिए जो क्रियाएँ की जाती हैं उनको विवेकपूर्वक संपादित करना ही समिति है । समितियाँ पाँच हैं - १. ईर्या ( गमन ), २. भाषा, ३ एषणा ( याचना ), ४ आदानभण्ड निक्षेपण और ५ उच्चारादि प्रतिस्थापन ।
१. अंगुत्तरनिकाय, ३।११८ ।
२. वही, ३।१२० ।
३. उद्धृत धर्मशास्त्र का इतिहास, पृ० ४९४, दक्षस्मृति, ७।२७-३१ । ४. उत्तराध्ययन, २४।२६ ।
५. वही, २४।२ ।
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