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घमण-धर्म
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और दुसरे अर्थ के अनुसार आत्मा की अशुभ से रक्षा करना गुप्ति है । गुप्तियाँ तीन है१. मनोगुप्ति, २. वचन-गुप्ति और ३. काय-गुप्ति ।'
१. मनोगुप्ति-मन को अप्रशस्त कुत्सित एवं अशुभ विचारों से दूर रखना मनोगुप्ति है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार श्रमण सरम्भ, समारम्भ और आरम्भ की हिंसक प्रवृत्तियों में जाते हुए मन को रोके, यही मनोगुप्ति है। श्रमण को दूषित वृत्तियों में जाते हुए मन को रोक कर मनोगुप्ति का अभ्यास करना चाहिए ।
२. वचनगुप्ति-असत्य, कर्कश, अहितकारी एवं हिंसाकारी भाषा का प्रयोग नहीं करना वचनगुप्ति है । नियमसार के अनुसार स्त्री-कथा, राजकथा, चोर-कथा, भोजनकथा आदि वचन की अशुभ प्रवृत्ति एवं असत्य वचन का परिहार वचनगुप्ति है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि श्रमण अशुभ प्रवृत्तियों में जाते हुये वचन का निरोध करे ।
३. कायगुप्ति-नियमसार के अनुसार बन्धन, छेदन, मारण, आकुंचन तथा प्रसारण आदि शारीरिक क्रियाओं से निवृत्ति कायगुप्ति है ।५ उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार श्रमण उठने, बैठने, लेटने, नाली आदि लांधने तथा पाँचों इन्द्रियों की प्रवृत्ति में शरीर की क्रियाओं का नियमन करे ।। ___ उत्तराध्ययनसूत्र में मुनि-जीवन के लिए इन तीन गुप्तियों का विधान अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्ति होने के लिए है। श्रमण साधक इन तीनों गुप्तियों के द्वारा अपने को अशुभ प्रवृत्तियों से दूर रखे, यही इसका हार्द है। संक्षेप में राग-द्वेष आदि से निवृत्ति मनोगुप्ति है, असत्य वचन से निवृत्ति एवं मौन वचनगुप्ति है और शारीरिक क्रियाओं से निवृत्ति तथा कायोत्सर्ग कायगुप्ति है ।
बौद्ध-परम्परा और गुप्ति-बौद्ध परम्परा में मन, वचन और शरीर की गुप्ति का विधान है । सुत्तनिपात में तो जैन-परम्परा के समान ही गुप्ति शब्द का प्रयोग किया गया है। बुद्ध ने भी श्रमण साधक को मन, वचन और शरीर की क्रियाओं के नियमन का निर्देश किया है । बौद्ध-परम्परा में मन, वचन और काया की तीन क्रियाओं के लिए जैन-परम्परा के समान त्रिदण्ड शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । जब कि इनके लिए स्थानांगसूत्र में मनदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड का प्रयोग हुआ है ।१० बुद्ध भी इन तीनों को स्वीकार तो करते हैं, लेकिन उन्होंने त्रिदण्ड के स्थान पर तीन कर्म शब्द का
१. उत्तराध्ययन, २४।१ । ३. नियमसार, ६७ । ५. नियमसार, ६८। ७. वही, २४।२६ । ९, सुत्तनिपात, ४।३।
२. वही, २४।२। ४. उत्तराध्ययन, २४।२३ । ६. उत्तराध्ययन, २४।२४-२५ ।
८. नियमसार, ६९-७० । १०. स्थानांग, ३।१२६ ।
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