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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
जहाँ तक अहिंसा - महाव्रत का प्रश्न है, जैन और वैदिक दोनों ही परम्पराएँ त्रस और स्थावर की हिंसा को निषिद्ध मानती हैं । फिर भी वैदिक परम्परा में जल, अग्नि, वायु आदि में जीवन का अभाव माना गया है और इसलिए उनकी हिंसा से बचने का कोई निर्देश वैदिक परम्परा में उपलब्ध नहीं है । वैदिक परम्परा में स्थूल और सूक्ष्म त्रस प्राणियों एवं वनस्पति आदि जंगम या स्थावर की हिंसा का ही निषेध है । सत्य महाव्रत के संदर्भ में वैदिक परम्परा में भी काफी गहराई से विचार किया गया है । वैदिक परम्परा में प्रिय सत्य के बोलने का विधान है । अप्रिय सत्य का बोलना निषिद्ध ही है । महाभारत के अनुसार सत्य बोलना अच्छा है परन्तु सत्य भी ऐसा बोलना अधिक अच्छा है जिससे सब प्राणियों का हित हो ।' वैदिक परम्परा में भी सत्य को अहिंसामय बनाने का प्रयास हुआ है । जब सत्य और अहिंसा में विरोध उत्पन्न हो जाय और उस स्थिति में बोलना भी आवश्यक हो तथा नहीं बोलने से संदेह उत्पन्न हो तो असत्य बोलना ही श्रेयस्कर माना गया है। महाभारत का यह दृष्टिकोण आचारांगसूत्र के पूर्वोक्त दृष्टिकोण से अत्यन्त साम्य रखता है । मनु ने भी ऐसी अपवादात्मक स्थिति में सामान्यतया मौन रहने का संकेत किया है। मनु के अनुसार यदि हिंसक अन्याय से भी पूछे तो कोई उत्तर नहीं देना चाहिए अथवा पागल के अनुसार अस्पष्ट रूप से हाँ-हूँ कर देना चाहिए । इस प्रकार हम देखते हैं कि सत्य महाव्रत के संदर्भ में जेन परम्परा और वैदिक परम्परा का दृष्टकोण काफी समान है । ब्रह्मचर्य महाव्रत के संदर्भ में भी वैदिक परम्परा में स्वीकृत मैथुन के आठ अंग जैन- परम्परा में बतायी गयी ब्रह्मचर्य की नव बड़ों से काफी अधिक निकटता रखते हैं ।
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गुप्ति एवं समिति
पूर्वोक्त महाव्रतों के रक्षण एवं उनकी परिपुष्टि करने के लिए जैन-परम्परा में पांच समितियों और तीन गुप्तियों का विधान है। इन्हें अष्ट प्रवचनमाता भी कहा जाता है ।
आठ गुण श्रमण-जीवन का संरक्षण उसी प्रकार करते हैं जैसे माता अपने पुत्र का करती है । इसीलिए इन्हें माता कहा गया है । इनमें तीन गुप्तियाँ श्रमण साधना का निषेधात्मक पक्ष प्रस्तुत करती हैं और पांच समितियाँ विधेयात्मक पक्ष प्रस्तुत करती हैं ।
तीन गुप्तियाँ - गुप्ति शब्द गोपन से बना है जिसका अर्थ है खींच लेना, दूर कर लेना । गुप्ति शब्द का दूसरा अर्थ ढँकने वाला या रक्षा कवच भी है । प्रथम अर्थ के अनुसार मन, वचन और काया को अशुभ प्रवृत्तियों से हटा लेना गुप्ति है,
१. मनुस्मृति, ४।१३८ ।
२.
३. वही, देखिए पातंजल योगप्रदीप, पृ० ३७७ ।
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महाभारत शान्तिपर्व, ३२६।१३ । ४. मनुस्मृति, २।१२० ।
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