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घमण-धर्म
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कि बुद्ध अग्नि, पानी आदि को जीवनयुक्त नहीं मानते थे। अतः सामान्य भोजन के निर्माण में उन्हें औद्देशिक हिंसा का कोई दोष परिलक्षित नहीं हुआ और इसलिए निमंत्रित भोजन का निषेध नहीं किया गया । सत्य महाव्रत के संदर्भ में भी जैन परम्परा
और बौद्ध परम्परा में मौलिक अन्तर यह है कि बुद्ध अप्रिय सत्य-वचन को हितबुद्धि से बोलना वजित नहीं मानते हैं, जबकि जैन-परम्परा अप्रिय सत्य को भी हितबुद्धि से बोलना वजित मानती है। अन्य भिक्षु शीलों के सम्बन्ध में सैद्धान्तिकरूप से जैन और बौद्ध परम्परा में कोई मूलभूत अंतर नहीं है, फिर भी जैन परम्परा में उन शीलों का पालन जितनी निष्ठा और कठोरतापूर्वक किया गया, उतना बौद्ध परम्परा में नहीं। यही कारण है कि बौद्ध श्रमण संस्था परवर्ती काल में काफी विकृत हो गयी। पंच यम और पंच महाव्रत
__ जैन परम्परा के पंच महाव्रत के समान ही वैदिक परम्परा में पंच यम स्वीकार किये गये हैं । पातंजल योगसूत्र में निम्न पंच यम माने गये हैं-१. अहिंसा, २. सत्य, ३. अस्तेय, ४. ब्रह्मचर्य और ५. अपरिग्रह ।' इन्हें महाव्रत भी कहा गया है। पातंजल योगसूत्र के अनुसार जो जाति, देश, काल और समय की सीमा से रहित है तथा सभी अवस्थाओं में पालन करने योग्य हैं, वे महाव्रत हैं। महाव्रतों का पालन सभी के द्वारा निरपेक्ष रूप से किया जाना चाहिए। वेदव्यास का कथन है कि निष्कामयोगी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का सेवन करे। वैदिक परम्परा के अनुसार संन्यासी को पूर्णरूप से अहिंसा महाव्रत का पालन करना चाहिए। संन्यासी के लिए त्रस और स्थावर दोनों प्रकार की हिंसा निषिद्ध है। इसी प्रकार संन्यासी के लिए असत्य-भाषण और कटु भाषण भी वजित हैं। वैदिक परम्परा में संन्यासी के आचार का जो विधान है उसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की दृष्टि से कोई मौलिक मतभेद नहीं है । वैदिक परम्परा के अनुसार भी संन्यासी को ब्रह्मचर्य महाव्रत का का पूर्णरूप से पालन करना चाहिए । वैदिक परम्परा में स्वीकृत मैथुन के आठों अंगों का सेवन उसके लिए वर्जित माना गया है। परिग्रह की दृष्टि से भी वैदिक परम्परा भिक्षु के लिए जलपात्र, पवित्र ( जल छानने का वस्त्र ), पादुका, आसन एवं कन्था आदि सीमित वस्तुएँ रखने की अनुमति देती है। वायुपुराण में उन सब वस्तुओं के नाम हैं जिन्हें संन्यासी अपने पास रख सकता है। वैदिक परम्परा में भी संन्यासी के लिए धातुपात्र का प्रयोग निषिद्ध है । मनुस्मृति के अनुसार संन्यासी का भिक्षापात्र तथा जलपात्र मिट्टी, लकड़ी, तुम्बी या बिना छिद्रवाले बांस का होना चाहिए।
१. पातंजल योगसूत्र-साधनपाद, ३२ ।
२. महाभारत शांतिपर्व, ९।१९ । ३. मनुस्मृति, ६।४७-४८ । ४. देखिए धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ४१३ । ५. वही, पृ० ४९३ ।
६. मनुस्मृति, ६।५३-५४ ।
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