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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन बौद्ध भिक्षु के लिए स्वर्ण-रजत आदि धातुओं का ग्रहण सर्वथा वर्जित है। इतना ही नहीं, बौद्ध भिक्षु को जीवनयापन के लिए जिन वस्त्र-पात्र आदि वस्तुओं की आवश्यकता होती है उन्हें भी सीमा से अधिक मात्रा में रखना वर्जित है। विनयपिटक के अनुसार यदि भिक्षु आवश्यकता से अधिक वस्त्रों को रखता है अथवा पात्र आदि अन्य वस्तुओं का आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है तो वह दोषी माना जाता है। बौद्ध परम्परा में भिक्षु के लिए त्रिचीवर, भिक्षा पात्र, पानी छानने के लिए छनने से युक्त पात्र, उस्तरा आदि सीमित वस्तुओं के रखने का विधान है। बौद्ध-परम्परा भिक्षु की आवश्यक सामग्रियों को भी संघ की सम्पत्ति मानती है। भिक्ष भिक्षु-संघ के द्वारा अथवा गृहस्थ उपासकों के द्वारा प्राप्त वस्तुओं का मात्र उपभोग कर सकता है। वह उनका स्वामी नहीं है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध-परम्परा के दस भिक्षु शील जैन-परम्परा के पंचमहाव्रतों एवं रात्रि-भोजन निषेध के अत्यन्त निकट हैं। बौद्ध-परम्परा भी उपर्युक्त दस भिक्षु शीलों के लिए मन, वचन और काय तथा कृत, कारित और अनुमोदित की नव कोटियों का विधान करती है। फिर भी बौद्ध-परम्परा और जैन-परम्परा में कुछ मौलिक अन्तर है, जिसे जान लेना चाहिए। जैन परम्परा के अनुसार भिक्षु न केवल . कृत, कारित और अनुमोदित हिंसा से बचते हैं वरन् वे औद्देशिक हिंसा से भी बचते हैं । जैन भिक्षु के लिए मन, वचन और काय से हिंसा करना, करवाना अथवा हिंसा का अनुमोदन करना तो निषिद्ध है ही लेकिन साथ ही यदि कोई भिक्षु के निमित्त से भी हिंसा करता है और भिक्षु को यह ज्ञात हो जाता है कि उसके निमित्त से हिंसा की गई है तो ऐसे आहार आदि का ग्रहण भी भिक्ष के लिए निषिद्ध माना गया है। बौद्धपरम्परा में भी भिक्षु के निमित्त की गई हिंसा को निषिद्ध माना गया है । स्वयं भगवान् बुद्ध ने इसे स्पष्ट किया है। मज्झिमनिकाय के जीवकसुत्त में बुद्ध कहते हैं कि जब मैं अपने लिए प्राणीवध किया हुआ देखता हूँ, सुनता हूँ या मुझे वैसी शंका होती है, तब मैं कहता हूँ कि यह अन्न निषिद्ध है। फिर भी जैन और बौद्ध परम्परा में प्रमुख अन्तर यह है कि बुद्ध निमंत्रित भिक्षा को स्वीकार करते थे जबकि जैन श्रमण किसी भी प्रकार का आमंत्रण स्वीकार नहीं करते थे। बुद्ध औद्देशिक प्राणीवध के द्वारा निर्मित मांस आदि को तो निषिद्ध मानते थे, लेकिन सामान्य भोजन के सम्बन्ध में वे औद्देशिकता का कोई विचार नहीं करते थे। वस्तुतः इसका मूल कारण यह था
१. विनयपिटक महावग्ग ११५६, चूलवग्ग १२।१, पातिमोक्ख-निसग्ग पाचितिय १८ । २. विनय पिटक–देखिए-बुद्धिज्म, पृ० ८१-८२ । ३. देखिए-सुत्त निपात, २६।१९।२३, मज्झिमनिकाय, २१४१६ । ४. मज्झिमनिकाय-जीवकसुन, ५५ ।
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