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श्रमण-धर्म
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रात्रि-भोजन परित्याग-रात्रि-भोजन परित्याग दिगम्बर परम्परा के अनुसार श्रमण का मूलगुण है । श्वेताम्बर परम्परा में रात्रि-भोजन परित्याग का उल्लेख छठे महाव्रत के रूप में भी हुआ है । दशवैकालिकसूत्र में इसे छठा महाव्रत कहा गया है।' मुनि सम्पूर्ण रूप से रात्रि-भोजन का परित्याग करता है। रात्रि-भोजन का निषेध अहिंसा के महाव्रत की रक्षा एवं संयम की रक्षा दोनों ही दृष्टि से आवश्यक माना गया है । दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि मुनि सूर्य के अस्त हो जाने पर सभी प्रकार के आहारादि की भोग की इच्छा मन से भी न करे। सभी महापुरुषों ने इसे नित्य-तप का साधन कहा है । यह एक समय भोजन की वृत्ति संयम के अनुकूल है। क्योंकि रात्रि में आहार करने से अनेक सूक्ष्म जीवों की हिंसा की सम्भावना रहती है। रात्रि में पृथ्वी पर ऐसे सूक्ष्म, त्रस एवं स्थावर जीव व्याप्त रहते हैं कि रात्रि-भोजन में उनकी हिंसा से बचा नहीं जा सकता है । यही कारण है कि निर्ग्रन्थ मुनियों के लिए रात्रि-भोजन का निषेध है।
आचार्य अमृतचन्द्र ने रात्रि-भोजन के विषय में दो आपत्तियाँ प्रस्तुत की है। प्रथम तो यह कि दिन की अपेक्षा रात्रि में भोजन के प्रति तीव्र आसक्ति रहती है और रात्रिभोजन करने से ब्रह्मचर्य-महाव्रत का निर्विघ्न पालन संभव नहीं होता। दूसरे रात्रि-भोजन में भोजन के पकाने अथवा प्रकाश के लिए जो अग्नि या दीपक प्रज्वलित किया जाता है उसमें भी अनेक जन्तु आकर जल जाते हैं तथा भोजन में भी गिर जाते हैं, अतः रात्रि-भोजन हिंसा से मुक्त नहीं है । बौद्ध-परम्परा और पंच महाव्रत
बौद्ध-परम्परा में निम्न दस भिक्षु शील माने गये हैं जो कि जैन परम्परा के पंच महाव्रतों के अत्यधिक निकट हैं । १. प्राणातिपात विरमण, २. अदत्तादान विरमण, ३. अब्रह्मचर्य या कामेसु-मिच्छाचार विरमण, ४ मूसावाद ( मृषावाद ) विरमण, ५. सुरामेरयमद्य (मादक द्रव्य) विरमण, ६. विकालभोजन विरमण, ७. नृत्यगीतवादित्र विरमण, ८. माल्य धारण, गन्ध विलेपन विरमण, ९. उच्च-शय्या, महाशय्या विरमण, १०. जातरूप रजतग्रहण ( स्वर्ण-रजतग्रहण ) विरमण । तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो इनमें से ६ शील पंच महाव्रत और रात्रि-भोजन परित्याग के रूप में जैन-परम्परा में भी स्वीकृत हैं। शेष चार भिक्षु-शील भी जैन-परम्परा में स्वीकृत हैं यद्यपि महाव्रत के रुप में इनका उल्लेख नहीं है। जैन-परम्परा भी भिक्षु के लिए मद्यपान, माल्य धारण, गंध विलेपन, नृत्यगीतवादित्र एवं उच्चशय्या का वर्जन करती है। १. दशवकालिक, ६।२३-२४, ४।६ । २. वही, ६।२३-२६ । ३. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, १३२।। ४. विनयपिटक महावग्ग, ११५६ ।
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