________________
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
छाता,
में वह संयम का पालन समुचितरूप से नहीं कर सकता । बृहद्कल्पभाष्य एवं परवर्ती ग्रन्थों में उपर्युक्त सामग्रियों के अतिरिक्त भी चिलमिलिका (पर्दा), दण्ड, पादप्रोंछन, सूचिका (सुई), आदि अनेक वस्तुओं के रखने की अनुमति है । विस्तार भय से उन सबकी चर्चा में जाना आवश्यक नहीं है । वस्तुतः ऐसा प्रतीत होता है कि जब एक बार मुनि के आवश्यक उपकरणों में अहिंसा एवं संयम की रक्षा के लिए वृद्धि कर दी गई तो परवर्ती आचार्यगण न केवल संयम की रक्षा के लिए, वरन् अपनी सुख-सुविधाओं के लिए भी मुनि के उपकरणों में वृद्धि करते रहे हैं । इतना ही नहीं, कभी-कभी तो कमजोरियों के दबाने तथा भोजन-वस्त्र की प्राप्ति के निमित्त भी उपकरण रखे जाने लगे । परतीर्थिक उपकरण, गुलिका, खोल आदि इसके उदाहरण हैं ।'
३४२
वस्तुतः जैन श्रमण के लिए जिस रूप में आवश्यक सामग्री रखने का विधान है, उसमें संयम की रक्षा ही प्रमुख हैं । उसके उपकरण धर्मोपकरण कहे जाते है, अतः मुनि को वे ही वस्तुएँ अपने पास रखनी चाहिए जिनके द्वारा वह संयम यात्रा का निर्वाह कर सके। इतना ही नहीं, उसे उन उपकरणों पर तो क्या अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखना चाहिए ।
अपरिग्रह महाव्रत के लिए जिन पाँच भावनाओं का विधान किया गया है वे पांचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति का निषेध करती हैं । आसक्त और कषायों के वशीभूत नहीं होना चाहिए, वृत्ति है ।
मुनि को इन्द्रियों के विषयों में यही उसकी सच्ची अपरिग्रह
अपरिग्रह महाव्रत के अपवाद - सामान्यतया, दिगम्बर मुनि के पूर्वोक्त ३ तथा श्वे० मुनि के लिए पूर्व निर्दिष्ट १४ उपकरणों केरखने का ही विधान है। विशेष परिस्थितियों में वह उनसे अधिक उपकरण भी रख सकता है । उदाहरणार्थ भिक्षु सेवाभाव की दृष्टि से अतिरिक्त पात्र रख सकता है अथवा विष निवारण के लिए स्वर्ण घिसकर उसका पानी रोगी को देने के लिए वह स्वर्ण को ग्रहण भी कर सकता है। इसी प्रकार अपवादीय स्थिति में वह छत्र, चर्म - छेदन आदि अतिरिक्त वस्तुएं रख सकता है तथा वृद्धावस्था एवं बीमारी के कारण एक स्थान पर अधिक समय तक ठहर भी सकता है । वर्तमानकाल में जैन श्रमणों द्वारा रखे जाने वाली पुस्तक, लेखनी, कागज, मसि आदि वस्तुएं भी अपरिग्रह व्रत का अपवाद ही है । प्राचीन ग्रन्थों में पुस्तक रखना प्रायश्चित योग्य अपराध था ।
१. बृहद्कल्पभाष्य, खण्ड ३, २८८३-९२, हिस्ट्री आफ जैन मोनाशिज्म,
२७७ ।
२. व्यवहारसूत्र, ८ १५
३. निशीथमाष्य, ३९४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
पृ० २६९
www.jainelibrary.org