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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
ब्रह्मचर्य साधुजनों द्वारा आचरित मोक्ष का मार्ग है । “पाँचों महाव्रतों में अत्यन्त (निरपवाद) पालन किया जाने वाला है।" ब्रह्मचर्य भंग होने पर सभी व्रत तत्काल भंग हो जाते हैं। सभी व्रत-नियम, शील, तप, गुण आदि दही के समान मथित हो जाते हैं, चूर-चूर हो जाते हैं, खंडित हो जाते हैं, उनका विनाश हो जाता है।' इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-दर्शन में श्रमण के लिए ब्रह्मचर्य महाव्रत को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है । अब्रह्मचर्य आसक्ति और मोह का कारण होने से आत्मा के पतन का महत्त्वपूर्ण कारण है, अतः आत्मविकास के लिए ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है । जैन श्रमण के लिए समस्त प्रकार का मैथुन त्रिकरण और त्रियोग से वर्जित है। ब्रह्मचर्य की साधना में जितनी आंतरिक सावधानी रखना आवश्यक है, उससे कहीं अधिक सावधानी बाह्य जीवन एवं संयोगों के लिए भी आवश्यक है । क्योंकि उच्चकोटि का श्रमण भी निमित्त के मिलने पर बीजरूप में रही हुई वासना के द्वारा कब पतन के मार्ग पर चला जायगा, यह कहना कठिन है । अतः ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए साधक को अपने बाह्य जीवन में उपस्थित होने वाले अवसरों के प्रति भी सदैव जाग्रत रहना आवश्यक है । उत्तराध्ययनसूत्र में ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त निम्न बातों से बचने का निर्देश किया गया है- १. स्त्री, पशु और नपुंसक जिस स्थान पर रहते हों भिक्षु वहाँ न ठहरे, २. भिक्षु शृंगार रसोत्पादक स्त्री-कथा न करे, ३. भिक्षु स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे (उनका स्पर्श भी न करे), ४. स्त्रियों के अंगोपांग विषय-बुद्धि से न देखे, ५. आसपास से आते हुए स्त्रियों के कुंजन, गायन, हास्य, क्रन्दित शब्द, रुदन
और विरह से उत्पन्न विलाप को न सुने, ६. गृहस्थावस्था में भोगे हुए भोगों (रतिक्रीड़ाओं) का स्मरण न करे, ७. पुष्टिकारक (गरिष्ठ) भोजन न करे, ८. मर्यादा से अधिक भोजन न करे, ९. शरीर का शृंगार न करे, १०. इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति न रखे। ___ मूलाचार में अब्रह्मचर्य के दस कारणों का उल्लेख है-१. विपुलाहार, २. शरीरशृंगार, ३. गन्ध-माल्य धारण, ४. गाना-बजाना, ५. उच्च शय्या, ६. स्त्री-संसर्ग; ७. इन्द्रियों के विषयों का सेवन, ८. पूर्वरति स्मरण, ९. काम भोग की सामग्री का संग्रह और १०. स्त्री सेवा । तत्त्वार्थसूत्र में इनमें से पांच का ही उल्लेख है। वस्तुतः उपर्युक्त प्रसंगों का उल्लेख ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त ही किया गया है । सामान्य नियम तो यह है कि भिक्षु को जहाँ भी अपने ब्रह्मचर्य महाव्रत के खंडन की संभावना प्रतीत हो, उन सभी स्थानों का उसे परित्याग कर देना चाहिए। जैन आचार-दर्शन
१. प्रश्नव्याकरणसूत्र ९ । ३. मूलाचार, १०।१०५-१०६ । ५. उत्तराध्ययन; १६।१४ ।
२. उत्तराध्ययन, १६।१-१० । ४. तत्त्वार्थ सूत्र, ७७
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