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________________ श्रमण-धर्म ३३९ में श्रमण एवं श्रमणी के पारस्परिक व्यवहार के नियमों का प्रतिपादन करने में भी प्रमुख रूप से यही दृष्टिकोण रहा है कि साधक का ब्रह्मचर्यव्रत अक्षुण्य रह सके । श्रमण और श्रमणी के पारस्परिक व्यवहार के संदर्भ में ये नियम उल्लेखनीय हैं - १ उपाश्रय अथवा मार्ग में अकेला मुनि किसी श्रमणी अथवा स्त्री के साथ न बैठे, न खड़ा. रहे और न उनसे कोई बात-चीत ही करे, २. अकेला श्रमण दिन में भी किसी अकेली साध्वी या स्त्री को अपने आवासस्थान पर न आने दे, ३. यदि श्रमण समुदाय के पास ज्ञानप्राप्ति के निमित्त से कोई साध्वी या स्त्री आयी हो तो किसी प्रौढ़ गृहस्थ उपासक एवं उपासिका की उपस्थिति में ही उसे ज्ञानार्जन करावे, ४. प्रवचन- काल के अतिरिक्त श्रमण अपने आवासस्थान पर साध्वियों एवं स्त्रियों को ठहरने न दे; ५. श्रमण एक दिन की बालिका का भी स्पर्श न करे ( साध्वियों के संदर्भ में यह निषेध बालक अथवा पुरुष के लिए समझना चाहिए ), ६. जहाँ गुरु अथवा वरिष्ठ मुनि शयन करते हों, उसी स्थान पर शयन करे, एकान्त में नहीं सोवे । इस प्रकार जैन आचार - विधि में जहाँ ब्रह्मचर्य पालन को इतना अधिक महत्त्व दिया गया है, वहाँ उसकी रक्षा के लिए भी कठोरतम नियमों एवं मर्यादाओं का विधान है । आचारांगसूत्र में ब्रह्मचर्य - महाव्रत की पांच भावनाएँ कही गयी हैं - १. निर्ग्रन्थ स्त्री-सम्बन्धी बातें न करे, क्योंकि ऐसा करने से उसके चित्त की शांति भंग होकर धर्म से भ्रष्ट होना संभव है, २. स्त्रियों के अंगोपांग को विषय बुद्धि से न देखे, ३. पूर्व की हुई कामक्रीड़ा का स्मरण न करे, ४. मात्रा से अधिक एवं कामोद्दीपक आहार न करे, ५. स्त्री, मादा पशु एवं नपुंसक के आसन एवं शय्या का उपयोग न करे । जो श्रमण उपर्युक्त सावधानियों को रखते हुए ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन करता है, उसके सम्बन्ध में ही यह कहा जा सकता है कि वह संसार के सभी दुःखों से छूटकर वीतराग अवस्था को प्राप्त कर लेता है ।" ब्रह्मचर्यव्रत के अपवाद - सामान्यतया ब्रह्मचर्यव्रत में कोई भी अपवाद स्वीकार नहीं किया गया है । ब्रह्मचर्य महाव्रत का निरपवादरूप से पालन करना ही अपेक्षित है । मूल आगमों में ब्रह्मचर्य के खंडन के लिए किसी भी अपवाद - नियम का उल्लेख उपलब्ध नहीं है । ब्रह्मचर्यं महाव्रत के सन्दर्भ में जिन अपवादों का उल्लेख मूल आगमों में पाया जाता है उनका सम्बन्ध मात्र ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा के नियमों से है । सामान्यरूप से श्रमण के लिए स्त्रीस्पर्श वर्जित है, लेकिन अपवादरूप में वह नदी में डूबती हुई अथवा क्षिप्तचित्त भिक्षुणी को पकड़ सकता है । इसी प्रकार रात्रि में सर्पदंश की स्थिति हो और अन्य कोई उपचार का मार्ग न हो तो श्रमण स्त्री से और साध्वी पुरुष से अवमार्जन २. बृहद्कल्पसूत्र, ६।७-१२ । १. आचारांग सत्र, २।१५।१७९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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