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________________ घमण-धर्म अनार्य कर्म है। साधुजन इसकी सदैव निन्दा करते हैं। इसीलिए दशवैकालिकसत्र में कहा गया है कि श्रमण छोटी अथवा बड़ी, सचित्त अथवा अचित्त कोई भी वस्तु चाहे वह दाँत साफ करने का तिनका ही क्यों न हो, बिना दिये न ले । न स्वयं उसे ग्रहण करे, न अन्य के द्वारा ही उसे ले और न लेनेवाले का अनुमोदन ही करे। ___अस्तेय महावत के सम्यक् परिपालन के लिए आचारांगसूत्र में पांच भावनाओं का विधान है-१. श्रमण विचारपूर्वक परिमित परिमाण में ही वस्तुओं की याचना करे, २. याचित आहारादि वस्तुओं का उपभोग आचार्य की आज्ञा से ही करे, आचार्य को बिना बताये किसी वस्तु का उपभोग न करे, ३. श्रमण अपने लिए निश्चित परिमाण में ही वस्तुओं की याचना करे, ४. श्रमण को जब भी कोई आवश्यकता हो उस वस्तु की मात्रा का परिमाण निश्चित करके ही याचना करे, ५. अपने सहयोगी श्रमणों के लिए भी विचारपूर्वक परिमित परिमाण में ही वस्तुओं की याचना करे । कुछ आचार्यों ने अस्तेय-महाव्रत के पालन के लिए इन पांच बातों को भी आवश्यक माना है-१. हमेशा निर्दोष स्थान पर ही ठहरना चाहिए, २. स्वामी की आज्ञा से ही आहार अथवा ठहरने का स्थान ग्रहण करना चाहिए, ३. ठहरने के लिए जितना स्थान गृहस्थ ने दिया है उससे अधिक का उपयोग नहीं करना चाहिए, ४. गुरु की आज्ञा के पश्चात् ही आहार आदि का उपभोग करना चाहिए, ५. यदि किसी स्थान पर पूर्व में कोई श्रमण ठहरा हो तो उसकी आज्ञा को प्राप्त करके ही ठहरना चाहिए । अस्तेय महावत के अपवाद-अस्तेय महाव्रत के सन्दर्भ में जिन अपवादों का उल्लेख है उनका सम्बन्ध आवास से है । व्यवहारसूत्र में कहा गया है कि यदि भिक्षु-संघ लम्बा विहार कर किसी अज्ञात ग्राम में पहुँचता है और उसे ठहरने के लिए स्थान नहीं मिल रहा हो तथा बाहर वृक्षों के नीचे ठहरने से भयंकर शीत की वेदना अथवा जंगली पशुओं के उपद्रव की सम्भावना हो तो ऐसी स्थिति में वह बिना आज्ञा प्राप्त किये भी योग्य स्थान पर ठहर जाये और उसके बाद आज्ञा प्राप्त करने का प्रयास करे। ब्रह्मचर्य-महाव्रत यह श्रमण का चतुर्थ महावत है। जैन आगमों में अहिंसा के बाद ब्रह्मचर्य का ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। कहा गया है कि जो इस दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है उसे देव, दानव और यक्ष आदि सभी नमस्कार करते हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व तथा विनय का मूल है । यम और नियमरूप प्रधान गुणों से युक्त है । ब्रह्मचर्य का पालन करने से मनुष्य का अन्तःकरण प्रशस्त, गम्भीर और स्थिर हो जाता है । १. दशवैकालिक, ६।१४-१५ ।। २. आचारांगसूत्र, २।१५।१७९ । ३. देखिए-प्रश्नव्याकरण, ८। ४. व्यवहारसूत्र, ८।११ । ५. उत्तराध्ययन. १६।१६ । २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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