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________________ ३३६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन को दबाने के लिए असत्य का आश्रय ले । आचारांगसूत्र के उक्त संदर्भ में भी हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि ग्रन्थकार का मूलभूत दृष्टिकोण अहिंसा - महाव्रत की रक्षा है । उसमें भी प्रथमतः साधक को अपने आत्मबल को जाग्रत रखते हुए मौन रहने का ही निर्देश है । महावीर के जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहाँ उन्होंने सम्भावित आपत्ति को सहन किया, लेकिन असत्य भाषण नहीं करते हुए मौन रहकर ही अहिंसा महाव्रत की मर्यादा का पालन किया । वस्तुतः आगमिक दृष्टिकोण यह है कि यथासंभव सत्य और अहिंसा दोनों का ही पूर्णतया पालन किया जाय, लेकिन यदि साधक मे इतना आत्मबल नहीं है कि वह मौन रहकर दोनों का ही पालन कर सके, तो ऐसी स्थिति में उसके लिए अपवाद मार्ग का उल्लेख है । आचार्य शीलांक ने आचारांग के उक्त संदर्भ के समान ही अपनी सूत्रकृतांगवृत्ति में सत्य के अपवाद के सन्दर्भ में स्पष्टरूप से कहा है कि जो प्रवंचना की बुद्धि से रहित मात्र संयम की रक्षा के लिए एवं कल्याण भावना से बोला जाता है वह असत्य दोषरूप नहीं है । अस्तेय महाव्रत -- श्रमण का यह तीसरा महाव्रत है । सामान्यतया भिक्षु को बिना स्वामी की आज्ञा के एक तिनका भी ग्रहण नहीं करना चाहिए । भिक्षु अपनी जीवनयात्रा के निर्वाह के लिए आवश्यक वस्तुओं को तब ही ग्रहण कर सकता है, जब कि वे उनके स्वामी के द्वारा उसे दी गयी हों । अदत्त वस्तु का न लेना ही श्रमण का अस्तेय महाव्रत है । अस्तेय महाव्रत का पालन भी श्रमण को मन, वचन और काय तथा कृतकारित और अनुमोदन की नव-कोटियों सहित करना चाहिए। श्रमण के लिए सामान्य नियम यही है कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति भिक्षा के द्वारा ही करे । न केवल नगर अथवा गाँव में, वरन् जंगल में भी यदि उसे किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो बिना निवास, शय्या एवं औषध आदि सभी प्रदत्त किये जाने पर ही ग्रहण करना दिये स्वयं ही ग्रहण न करे ।२ भोजन, वस्त्र, उनके स्वामी की अनुमति तथा उसके द्वारा चाहिए । जैन दृष्टिकोण के अनुसार अस्तेय महाव्रत का पालन करना इसलिए आवश्यक है। कि चौर्यकर्म भी एक प्रकार की हिंसा है । आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है कि अर्थ या सम्पत्ति प्राणियों का बाह्य प्राण है, क्योंकि इस पर उनका जीवन आधारित रहता है, इसलिए किसी की वस्तु का हरण उसके प्राणों के हनन के समान है । प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी कहा गया है कि यह अदत्तादान (चोरी) संताप, मरण एवं भयरूपी पातकों का जनक है, दूसरे के धन के प्रति लोभ उत्पन्न करता है । यह अपयश का कारण और १. दशवैकालिक, ६ । १४ । ३. पुरुषार्थसिद्धधुपाय, १०३ । Jain Education International २. मूलाचार, ५।२९० । ४. प्रश्नव्याकरणसूत्र, ३ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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