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________________ भ्रमण - -धर्म ३३५ करो, जो सत्य का वरण करता है वह बुद्धिमान् समस्त पापकर्मों का क्षय कर देता है । सत्य की आज्ञा में विचरण करने वाला साधक इस संसार से पार हो जाता है । " सत्य- महाव्रत के पालन के लिए पाँच भावनाओं का विधान है- १. विचारपूर्वक बोचना चाहिए, बिना विचारे बोलने से असत्य बोलना सम्भव है; २. क्रोध का त्याग करके बोलना चाहिए क्योंकि क्रोध की अवस्था में विवेक कुंठित हो जाता है और इसलिए असत्य बोलने की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं; ३. लोभ का त्याग करके बोलना चाहिए क्योंकि लोभ के वशीभूत होकर असत्य बोलना सम्भव है; ४. भय का त्याग करके बोलना चाहिए क्योंकि भय के कारण असत्य बोलना सम्भव है; ५. हास्य का त्याग करके बोलना चाहिए क्योंकि हास्य के प्रसंग में भी असत्य भाषण की संभावनाएँ रहती हैं । जो श्रमण उपर्युक्त पाँचों भावनाओं का ध्यान रखते हुए बोलता है, तब ही यह कहा जा सकता है कि उसने सत्य - महाव्रत स्वीकार किया है, क्रियान्वित किया है और जिनों की आज्ञा के अनुसार उसका पालन किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन- विचारकों ने भाषा सम्बन्धी विवेक के लिए काफी गहराई से विचार किया है । सत्य महाव्रत के अपवाद -- सत्य महाव्रत के सन्दर्भ में मूल आगमों के जिन अपवादों का उल्लेख मिलता है, उनमें प्रमुखतया सत्य को अहिंसक बनाये रखने का दृष्टिकोण ही परिलक्षित होता है । मूल आगमों के अनुसार जिन परिस्थितियों में सत्य और अहिंसा में विरोध खड़ा हो और उनमें किसी एक का पालन ही सम्भव हो, ऐसी स्थिति में अहिंसा के व्रत की रक्षा के लिए सत्य के सन्दर्भ में अपवाद को स्वीकार किया गया है । आचारांगसूत्र में कहा गया है कि यदि भिक्षु मार्ग में जा रहा हो और सामने से कोई शिकारी व्यक्ति आकर उससे पूछे कि - श्रमण क्या तुमने किसी मनुष्य अथवा पशु आदि को इधर आते देखा है ? इस प्रसंग में प्रथम तो भिक्षु उसके प्रश्न की उपेक्षा करके मौन रहे । यदि मौन रहने जैसी स्थिति न हो अथवा मौन रहने का अर्थ स्वीकृति लगाये जाने को सम्भावना हो तो जानता हुआ भी यह कह दे कि मैं नहीं जानता । यहाँ पर स्पष्ट रूप से अपवाद मार्ग का उल्लेख है । निशीथचूर्णि में भी इसी दृष्टिकोण का समर्थन है । बृहद्कल्पभाष्य में गोतार्थ के द्वारा नवदीक्षित भिक्षुओं को संयम में स्थिर रखने के लिए भी सत्य महाव्रत में कुछ अपवादों को स्वीकार किया गया है, यद्यपि उस प्रसंग में गीतार्थ द्वारा आचरण सम्बन्धी शिथिलता को दबाने का हो प्रयास परिलक्षित होता । वस्तुतः जैन - परम्परा का बुनियादी दृष्टिकोण यह नहीं हो सकता कि व्यक्ति अपनी कमजोरियों ५ २. वही, २।१५।१७९ । १. आचारांगसूत्र १।३।२, १।३।३ । ३. आचारांग सूत्र, २।१।३।३।१२९, देखिए आचारांगटीका, २।१।३।३।१२९ । ४. निशीथचूर्ण, ३२२ । ५. बृहद्कल्पभाष्य, २८८२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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