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________________ ३३४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन हारिक ।' इनमें असत्य और मिश्र भाषा का व्यवहार श्रमण के लिए वर्जित है। इतना ही नहीं, सत्य और व्यावहारिक भाषा भी यदि पाप और हिंसा की संभावना से युक्त है तो उसका व्यवहार भी श्रमण के लिए वर्जित है। श्रमण केवल अहिंसक एवं निर्दोष सत्य तथा व्यावहारिक भाषा बोल सकता है । दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि प्रज्ञावान् भिक्षु अवक्तव्य (न बोलनेयोग्य) सत्य भाषा भी न बोले । इसी प्रकार वह भाषा जो थोड़ी सत्य और थोड़ी असत्य (नरो वा कुंजरो वा) है ऐसी मिश्र भाषा का व्यवहार भी वाक्संयमी साधु न करे । बुद्धिमान् भिक्षु केवल असत्य-अमृषा (व्यावहारिक) भाषा तथा सत्य भाषा को भी पापरहित, अकर्कश तथा संदेहरहित होने पर ही विचारपूर्वक बोले। इसी प्रकार साधु निश्चयकारी वचन भी बोले, क्योंकि अघटित भविष्य के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जो कथन भूत और वर्तमान के संदर्भ में संदेहरहित हो उसी के विषय में निश्चयात्मक भाषा बोले । जिन शब्दों से दूसरे प्राणियों के हृदय में ठेस पहुँचे ऐसे हिंसक एवं कठोर शब्दों को चाहे वे सत्य ही क्यों न हों भिक्षु न बोले । इसी प्रकार भिक्षु पारिवारिक सम्बन्धों के सूचक शब्द जैसे-हे माता, हे पुत्र आदि तथा अपमानजनक शब्द जैसे-हे मूर्ख आदि का भी प्रयोग न करे । जिस भाषा से हिंसा की संभावना हो ऐसी भाषा का प्रयोग भी न करे। काम, क्रोध, लोभ, भय एवं हास्य के वशीभूत होकर पापकारी, निश्चयकारी, दूसरों के मन को दुःखानेवाली भाषा, चाहे वह मनोविनोद में ही क्यों न कही गयी हो, का बोलना भिक्षु के लिए सर्वथा वजित है । श्रमण को स्वार्थ अथवा परार्थ, क्रोध अथवा भय के वशीभूत होकर असत्य न तो स्वयं बोलना चाहिए और न किसी को असत्य बोलने के लिए प्रेरित ही करना चाहिए। क्योंकि असत्य वचन अविश्वास का कारण है । इस प्रकार जैन-परम्परा में असत्य और अप्रिय-सत्य दोनों का निषेध है। इस सम्पूर्ण विवेचन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन आचार्यों की दृष्टि में भाषा सम्बन्धी सत्य का स्थान अहिंसा के बाद है, उन्होंने सत्य को अहिंसक बनाने का प्रयास किया है। सत्य अहिंसक बना रहे, इसलिए संभाषण के क्षेत्र में विशेष सतर्कता रखने का निर्देश है । निश्चयकारी भाषा का निषेध मात्र इसीलिए किया गया है कि वह अहिंसा और अनेकान्त की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि जैन आचार्यों की दृष्टि में सत्य का मूल्य अधिक नहीं है अथवा उन्होंने सत्य की अवहेलना की है । जैन आचार्यों ने सत्य को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है, उनकी दृष्टि में सत्य तो भगवान् है (तं सच्चं भगवं) वहीं समग्र लोक में सारभूत है। महावीर स्पष्ट रूप से कहते हैं कि सत्य में मन की स्थिरता १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ९१ । ३. वही, ६।१२, १३। २. दशवकालिकसूत्र, ७१-४, ६-११, १४, १५ । ४, प्रश्नव्याकरणसूत्र, २।२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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