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________________ ३२८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन द्वार बिना किसी वर्ण एवं जाति के भेद के सभी के लिए खुला रखती है। महावीर के समय में निम्नतम से निम्नतम जाति के लोगों को भी श्रमण-संस्था में प्रवेश दिया जाता था, यह बात उत्तराध्ययनसूत्र के हरिकेशीबल के अध्याय से स्पष्ट हो जाती है। यद्यपि प्राचीन काल में सभी जाति के लोगों को श्रमण-संस्था में प्रवेश किया जाता था, किन्तु कुछ लोगों को श्रमण-संस्था में प्रवेश के लिए अयोग्य मान लिया गया था । निम्न व्यक्ति श्रमण-संस्था में प्रवेश के लिए अयोग्य माने गये थे--(१) आठ वर्ष से कम उम्र का बालक, (२) अति-वृद्ध, (३) नपुंसक, (४) क्लीव, (५) जड़ (मूर्ख), (६) असाध्य रोग से पीड़ित, (७) चोर, (८) राज-अपराधी, (९) उन्मत्त (पागल), (१०) अंधा, (११) दास, (१२) दुष्ट, (१३) मूढ़ ज्ञानार्जन के अयोग्य, (१४) ऋणी, (१५) कैदी, (१६) भयार्त (१७) अपहरण करके लाया गया, (१८) जुङ्गित-जाति, कर्म अथवा शरीर से दूषित, (१९) गर्भवती स्त्री, (२०) ऐसी स्त्री जिसकी गोद में बच्चा दूध पीता हो ।' यद्यपि स्थानांगसूत्र में श्रमण-दीक्षा के अयोग्य व्यक्तियों में नपुंसक, असाध्यरोगी एवं भयार्तं का ही उल्लेख है, तथापि टीकाकारों ने उपर्युक्त प्रकार के व्यक्तियों को श्रमणदीक्षा के अयोग्य माना है। इतना ही नहीं, परवर्ती टीकाकारों ने उसमें जाति को भी आधार बनाने का प्रयास किया है। जुङ्गित शब्द की व्याख्या में मातंग, मछुआ, बसोड़, दर्जी, रंगरेज आदि जातियों के लिए भी श्रमण-दीक्षा वर्जित बतायी गयी ।२ यद्यपि कुछ परवर्ती आचार्यों ने इनमें से कुछ जातियों को श्रमण-संस्था में प्रवेश देना स्वीकार किया है और वर्तमान परम्परा में भी रंगरेज, दर्जी आदि जातियों के व्यक्तियों को श्रमण-संस्था में प्रवेश दिया जाता है। फिर भी यह सत्य है कि मध्यवर्ती युग में कुछ जातियाँ श्रमण दीक्षा के लिए वर्जित मानी गयी थीं । संभवतः ऐसा ब्राह्मण-परम्परा के प्रभाव के कारण हुआ हो, ताकि श्रमण-संस्था को लोगों में होनेवाली टीका-टिप्पणी से बचाया जा सके । “धर्म संग्रह" के अनुसार श्रमण-दीक्षा ग्रहण करने वाले में निम्न योग्यताएँ होनी चाहिए। (१) आर्य देश समुत्पन्न, (२) शुद्धजातिकुलान्वित, (३) क्षीणप्रायाशुभकर्मा, (४) निर्मलबुद्धि, (५) विज्ञातसंसारनैर्गुण्य, (६) विरक्त, (७) मंदकषाय, (८) अल्पहास्यादि (९) कृतज्ञ, (१०) विनीत, (११) राजसम्मत, (१२) अद्रोही, (१३) सुन्दर, सुगठित एवं पूर्ण, (१४) श्रद्धावान्, (१५) स्थिर-विचार और (१६) स्वइच्छा से दीक्षा के लिए तत्पर ।' प्रवचनसारोद्धार आदि अन्य ग्रन्थों में भी श्रमण-दीक्षा के लिए उपयुक्त विचारों का समर्थन मिलता है। १. देखिए-हिस्ट्री आफ जैन मोनासिज्म, पृ० १४०; भगवान् बुद्ध, पृ० २५८ । २. प्रवचनसारोद्धार, द्वार १०७ ।। ३. धर्मसंग्रह ३।७३ - ७८ देखिए बोलसंग्रह भाग ५, पृ० १५८-१६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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