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________________ श्रमण-धर्म ३ २७ उठना है और बाह्यरूप से वह हिंसक प्रवृत्तियों से निवृत्ति है। तथ्य यह है कि समभाव की उपलब्धि प्राथमिक है, जबकि सावद्य व्यापारों से दूर होना द्वितीय है । जब तक विचारों में समत्व नहीं आता, तब तक साधक अपने को सावद्य क्रियाओं से भी पूर्णतया निवृत्त नहीं रख सकता । अतः समत्व की साधना ही श्रमण जीवन का मूल आधार है । बौद्ध परम्परा में श्रमण- जीवन का तात्पर्य - जैन परम्परा के समान बौद्धपरम्परा में भी श्रमण - जीवन का तात्पर्य समभाव की साधना ही है । जिस प्रकार जैनपरम्परा में श्रमण - जीवन का अर्थ इच्छाओं एवं आसक्तियों से ऊपर उठना तथा पाप वृत्तियों का शमन माना गया है, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी तृष्णा का परित्याग एवं पापों का शमन ही श्रमण - जीवन का हार्द है । बुद्ध कहते हैं कि जो व्रतहीन है तथा मिथ्याभाषी है वह मुंडित होने मात्र से श्रमण नहीं होता । इच्छा और लोभ से भरा हुआ मनुष्य भला क्या श्रमण बनेगा ? जो छोटे-बड़े सभी पापों का शमन करता है, उसे पापों का शमनकर्ता होने के कारण ही श्रमण कहा जाता हैं' बुद्ध के अनुसार श्रमणजीवन का सार है समस्त पापों का नहीं करना, कुशल कर्मों का सम्पादन करना एवं चित्त को शुद्ध रखना । इस प्रकार बौद्ध दर्शन में भी श्रमण जीवन की साधना के दो पक्ष हैं - आंतरिक रूप से वह चित्तशुद्धि है तो बाह्यरूप से पापविरति । वैदिक परम्परा में संन्यास - जीवन का तात्पर्य- वैदिक आचार-परम्परा में भी संन्यास जीवन का तात्पर्य फलाकांक्षा का त्याग माना गया है । उसमें समस्त लौकिक एषणाओं से ऊपर उठना एवं सभी प्राणियों को अभय प्रदान करना ही संन्यास का हार्द है । वैदिक परम्परा में साधक संन्यास ग्रहण करते समय प्रतिज्ञा करता है कि "मैं पुत्रैषणा ( कामवासना ), वित्तैषणा (लोभ) और लोकैषणा ( सम्मान की आकांक्षा ) का परित्याग करता हूं और सभी प्राणियों को अभय प्रदान करता हूँ । 113 इस प्रकार सभी आचार - दर्शनों के अनुसार श्रमण-जीवन का तात्पर्य मानसिक समत्व अथवा रागद्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठकर सामाजिक क्षेत्र में अहिंसक एवं निष्पाप जीवन जीना ही सिद्ध होता है । जैनधर्म में श्रमण - जीवन के लिए आवश्यक योग्यताएँ श्रमण का जीवन एक उच्चस्तरीय नैतिकता एवं आत्मसंयम का जीवन है । श्रमण संस्था पवित्र बनी रहे इसलिए श्रमण संस्था में प्रविष्ट होने के लिए कुछ नियमों का होना आवश्यक माना गया है । सामान्यतया जैन- विचारधारा श्रमण संस्था में प्रवेश के २. वही, १८३ । १. धम्मपद, २६४-२६५ । ३. पुत्रैषणा वित्तैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता मत्तः सर्व भूतेभ्योऽभयमस्तु । - उद्धृत नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० १०१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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