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________________ ३२६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन प्रयोग होता है । 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैं, १ - श्रमण २ - समन और ३- शमन । १. श्रमण शब्द श्रम धातु से बना है । इसका अर्थ है परिश्रम या प्रयत्न करना अर्थात् जो व्यक्ति अपने आत्स विकास के लिए परिश्रम करता है, वह श्रमण है । २. समन शब्द के मूल सम् है जिसका अर्थ है समत्वभाव । जो व्यक्ति सभी प्राणियों को अपने समान समझता है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखता है, वह श्रमण कहलाता है । ३. शमन शब्द का अर्थ है अपनी वृत्तियों को शांत रखना अथवा मन और इन्द्रियों पर संयम रखना । अतः जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को संयमित रखता है वह श्रमण है । वस्तुतः जैन- परम्परा में श्रमण शब्द का मूल तात्पर्य समत्वभाव की साधना ही है । भगवान् महावीर ने कहा है कि कोई केवल मुंडित होने से श्रमण नहीं होता, वरन् जो समत्व की साधना करता है वही श्रमण होता है । " श्रमण शब्द की व्याख्या में बताया गया है कि जो समत्वबुद्धि रखता है तथा जो सुमना होता है वही श्रमण है । सूत्रकृताग में भी श्रमण जीवन की स्पष्ट व्याख्या उपलब्ध है । जो साधक शरीर आदि में आसक्ति नहीं रखता, किसी प्रकार की सांसारिक कामना नहीं करता, किसी प्राणी की हिंसा नहीं करता है, झूठ नहीं बोलता है, मैथुन और परिग्रह के विकार से रहित है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, आदि जितने भी कर्मादान और आत्मा के पतन के हेतु हैं, सबसे निवृत्त रहता है, इसी प्रकार जो इन्द्रियों का विजेता है, मोक्षमार्ग का सफल यात्री हैं, शरीर के मोह-ममत्व से रहित है, वह श्रमण कहलाता है । श्रमणत्व ग्रहण करने की प्रतिज्ञा के द्वारा भी श्रमण जीवन के अर्थ को सम्यक् प्रकार से समझा जा सकता है । जैन- परम्परा में श्रमण संस्था में प्रविष्ट होने का इच्छुक साधक गुरु के समक्ष सर्वप्रथम यह प्रतिज्ञा करता है कि 'हे पूज्य, मैं समत्वभाव को स्वीकार करता हूँ और सम्पूर्ण सावद्य क्रियाओं का परित्याग करता हूँ | जीवन पर्यन्त इस प्रतिज्ञा का पालन करूँगा । मन-वचन और काय से न तो कोई अशुभ प्रवृत्ति करूँगा न करवाऊँगा और न करनेवाले का अनुमोदन करूँगा । मैं पूर्व में की हुई ऐसी समग्र अशुभ प्रवृत्तियों की निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूं एवं स्वयं को उनसे विलग करता हूँ ।' जैन- विचारणा के अनुसार साधना के दो पक्ष हैं आंतरिक और बाह्य । श्रमणजीवन आंतरिक साधना की दृष्टि समत्व की साधना है, रागद्वेष की वृत्तियों से ऊपर १. उत्तराध्ययन २५।३२ । ३. सूत्रकृतांग, १८१६।२ - उद्धृत श्रमणसूत्र पू० ५४- ५७ । २. अनुयोगद्वार उपक्रमाधिकार १, ३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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