SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ श्रमण-धर्म जैन दर्शन में श्रमण-जीवन का स्थान-जैन परम्परा सामान्यतया श्रमण-परम्परा है । इसलिए उसमें श्रमण-जीवन को प्रधान माना गया है । बृहद्कल्पसूत्र के अनुसार प्रथमतः प्रत्येक आगन्तुक को यतिधर्म का ज्ञान कराना चाहिए और यदि वह उसके पालन में असमर्थता प्रकट करे तो उसे गृहस्थधर्म का उपदेश करना चाहिए।' बौद्ध धर्म में श्रमण-जीवन का स्थान-बौद्ध-परम्परा भी मुख्यतः श्रमण परम्परा है और उसमें भी श्रमण-जीवन को सर्वोच्च माना गया है । बुद्ध ने सदैव ही श्रमण-जीवन को प्राथमिकता दी है। उनके अनुसार यथासंभव व्यक्ति को श्रमण-जीवन अंगीकार करना चाहिए । यदि मनुष्य श्रमण जीवन बिताने में असमर्थ है तो गृहस्थ जीवन अंगीकार कर सकता है। वैविक परम्परा में श्रमण-जीवन का स्थान-वैदिक परम्परा में गृहस्थ जीवन का ही विशेष महत्त्व है; यद्यपि बाद में श्रमण परम्पराओं के प्रभाव से उसमें भी श्रमण जीवन को समुचित स्थान मिल गया है । वैदिक आश्रम-व्यवस्था में जीवन का अन्तिम साध्य संन्यास ही है। गीता के युग तक वैदिक परम्परा में गृहस्थ-जीवन एवं संन्यास मार्ग दोनों ही परम्पराएँ प्रतिष्ठित हो चुकी थीं। गीता में संन्यासमार्ग और गृहस्थजीवन के मध्य एक समन्वय स्थापित करने का प्रयास उपलब्ध है । श्रमण-साधना का मूल मन्तव्य जिस अनासक्त जीवन पद्धति का निर्माण है, गीता उसे गृहस्थ जीवन के माध्यम से भी प्रस्तुत करने का प्रयास करती है। श्रमण जीवन की सर्वोच्चता के सम्बन्ध में तीनों ही आचार-दर्शनों में अधिक दूरी नहीं है, यद्यपि वैदिक परम्परा का प्रयास गृहस्थ जीवन को भी संन्यास के समकक्ष बनाने का रहा है। जैन धर्म में श्रमण का तात्पर्य-जैन परम्परा में श्रमण जीवन का तात्पर्य पापविरति है। जैन-परम्परा के अनुसार श्रमण-जीवन में व्यक्ति को बाह्य रूप से समस्त पापकारी (हिंसक) प्रवृत्तियों से बचना होता है, साथ ही आन्तरिक रूप से उसे समस्त रागद्वेषात्मक वृत्तियों से ऊपर उठना होता है। श्रमण-जीवन का तात्पर्य 'श्रमण' शब्द की व्याख्या से ही स्पष्ट हो जाता है। प्राकृत भाषा में श्रमण के लिए 'समण' शब्द का २. सुत्तनिपात, १२॥१४-१५ । १. बृहद्कल्पसूत्र, ११३९ । ३. गीता, ५।२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy