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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
संन्यास या उपसंपदा की पूर्व भूमिका होता है, उसी प्रकार जैन-परम्परा की श्रमणभूतप्रतिमा भी श्रमण-जीवन को पूर्व भूमिका है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि गृहस्थ-साधना को उपरोक्त भूमिकाओं और कक्षाओं की व्यवस्था इस प्रकार से की गयी है कि जो साधक वासनात्मक जीवन से एकदम ऊपर उठने की सामर्थ्य नहीं रखता, वह निवृत्ति की दिशा में क्रमिक प्रगति करते हुए अन्त में पूर्ण निवृत्ति के आदर्श को प्राप्त कर सके ।
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