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________________ गृहस्थ धर्म ३२३ करा लेता है । स्वयं के लिए बने आहार का भी परित्याग कर देता है । वह किसी भी गृहस्थ या कुटुम्बीजन के यहाँ जाकर आहार ग्रहण करता है । श्वेताम्बर - परम्परा में परिग्रह - विरत प्रतिमा नहीं होने से इसे दसवीं प्रतिमा माना गया है । उनके अनुसार इस अवस्था में गृहस्थ उपासक से किसी पारिवारिक बात के पूछे जाने पर उसे केवल इन दो विकल्पों से उत्तर देना चाहिए। मैं इसे जानता हूँ या मैं इसे नहीं जानता हूँ । ११. (ब) श्रमणभूत प्रतिमा- इस अवस्था में गृहस्थ उपासक की अपनी समस्त चर्या साधु के समान होती है । उसकी वेशभूषा भी लगभग वैसी ही होती है । भिक्षा चर्या द्वारा ही जीवन निर्वाह करता है । यदि उसे कोई मुनि समझ कर वंदन करता है तो वह यह कह देता है कि मैं तो प्रतिमाधारी श्रमणोपासक हूँ और आपसे क्षमा चाहता हूँ । श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से साधु से वह इस अर्थ में भिन्न होता है कि (१) पूर्वराग के कारण कुटुम्ब के लोगों या परिचित जनों के यहाँ ही भिक्षार्थ जाता है । ( २ ) केश - लुञ्चन के स्थान पर मुण्डन करवा सकता है ( ३ ) साधु के समान विभिन्न ग्राम एवं नगरों में कल्पानुसार विहार नहीं करता है । अपने निवास नगर में ही रह सकता है । दिगम्बर परम्परा में इसके दो विभाग हैं - १. क्षुल्लक और २. ऐलक । क्षुल्लक -- यह दिगम्बर मुनि के आचार-व्यवहार से निम्न बातों में भिन्न होता है - (१) दो वस्त्र ( अधोवस्त्र और उत्तरीय) रखता है, (२) या तो केशलोच करता है या मुण्डन करवाता है, (३) भिक्षा विभिन्न घरों से माँग कर करता है या फिर किसी मुनि के पीछे जाकर एक ही घर से ग्रहण करता है । ऐलक - आचार और चर्या में यह मुनि का निकटवर्ती होने के कारण इसे ऐलक कहा जाता है । यह एक कमण्डलु और मोरपिच्छी रखता है, केशलुञ्चन करता है, वह दिगम्बर मुनि से केवल एक बात में भिन्न होता है कि लोकलज्जा के नहीं छूट पाने के कारण गुह्यांग को ढँकने के लिए मात्र लंगोटी रखता है जबकि दिगम्बर मुनि सर्वथा नग्न होता है । शेष सब बातों में इसकी चर्या दिगम्बर मुनि के समान ही होती है । इस प्रकार यह अवस्था गृही साधना की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है । साधक अपने अगले विकास के चरण में श्रमण या मुनि जीवन को स्वीकार कर लेता है या संथारा ग्रहण कर देह त्याग देता है इसे श्रमण जीवन की पूर्व भूमिका भी कहा जा सकता है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर यह अवस्था वैदिक परम्परा के वानप्रस्थाश्रम और बौद्ध परम्परा के श्रामणेरजीवन के समकक्ष मानी जा सकती है । वैदिकपरम्परा में और बौद्ध परम्परा में जिस प्रकार वानप्रस्थ अथवा श्रामणेर का जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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