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________________ ३२२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन व्यवसाय आदि करता रहता है, जिनके कारण उद्योगी एवं आरम्भी हिंसा से पूर्णतया बच नहीं पाता है । ८. आरम्भत्याग प्रतिमा- - साधना की इस भूमिका में आने के पूर्व गृहस्थ उपा सक का महत्त्वपूर्ण कार्य यह है कि वह अपने समग्र पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों को अपने उत्तराधिकारी पर डाल दे । जैन परम्परा में गृहस्थ उपासक इस प्रसंग पर अपने कुटुंबीजनों तथा सम्भ्रान्त नागरिकों को बुलाकर एक विशेष समारोह के साथ अपने पारिवारिक, सामाजिक और व्यावसायिक उत्तरदायित्व को ज्येष्ठपुत्र या अन्य उत्तराधिकारी को संभला देता है और स्वयं निवृत्त होकर अपना सारा समय धर्माराधना में लगाता है । इस भूमिका में रहकर गृहस्थ उपासक यद्यपि स्वयं व्यवसाय आदि कार्यों में भाग नहीं लेता है और न स्वयं कोई आरम्भ ही करता है, फिर भी वह अपने पुत्रादि को यथावसर व्यावसायिक एवं पारिवारिक कार्यों में मार्गदर्शन देता रहता है । दूसरे, वह व्यवसाय आदि कार्यों का संचालन तो पुत्रों को सौंप देता है लेकिन सम्पत्ति पर से स्वामित्व के अधिकार का त्याग नहीं करता है । सम्पत्ति के स्वामित्व का त्याग वह इसलिए नहीं करता है कि यदि पुत्रादि अयोग्य सिद्ध हुए तो वह किसी योग्य उत्तराधिकारी को दी जा सके । ९. परिग्रह - विरत प्रतिमा - गृहस्थ उपासक को जब संतोष हो जाता है कि उसकी सम्पत्ति का उसके उत्तराधिकारियों द्वारा उचित रूप से उपयोग हो रहा है अथवा वह योग्य हाथों में है तो वह उस सम्पत्ति पर से अपने स्वामित्व के अधिकार का भी परित्याग कर देता है और इस प्रकार निवृत्ति की दिशा में एक कदम आगे बढ़कर परिग्रहविरत होता जाता है । फिर भी इस अवस्था में वह पुत्रादि को व्यावसायिक एवं पारिवारिक कार्यों में उचित मार्गदर्शन देता रहता है । इस प्रकार परिग्रह से विरत हो जाने पर भी वह अनुमति-विरत नहीं होता । श्वेताम्बर परम्परा में परिग्रहविरतप्रतिमा के स्थान पर भृतक प्रेष्यारम्भ वर्जन प्रतिमा है जिसमें गृहस्थ उपासक स्वयं आरम्भ करने एवं दूसरे से करवाने का परित्याग कर देता है, लेकिन अनुमति - विरत नहीं होता है । १०. अनुमतिविरत प्रतिमा - गृहस्थ उपासक विकास की देना भी बन्द कर देता है । वह समस्त ऐसे आदेशों और जिनके कारण किसी भी प्रकार की स्थावर या त्रसहिंसा की परम्परा के अनुसार यह नवीं प्रतिमा का ही अंग । इस अवस्था तक गृहस्थ उपासक अपने लिए बने भोजन को अपने परिवार से ही ग्रहण करता है, स्वयं के लिए बने भोजन को ग्रहण करने का वह त्यागी नहीं होता है । ११. (ज) उद्दिष्टभक्तवर्जन प्रतिमा-निवृत्ति के इस चरण में गृहस्थ उपासक मुण्डन Jain Education International For Private & Personal Use Only इस कक्षा में अनुमति उपदेशों से दूर रहता है, सम्भावना हो । श्वेताम्बर www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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