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________________ गृहस्थ भर्म ३२१ झंझटों में से कुछ ऐसे अवकाश के दिन निकालता है, जब वह गृहस्थी के उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर मात्र आध्यात्मिक चिन्तन-मनन कर सके । वह गुरु के समीप या धर्मस्थान ( उपासना - गृह) में रहकर आध्यात्मिक साधना में ही उस दिवस को व्यतीत करता है । प्रत्येक मास की दो अष्टमी, दो चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा इन दिनों में गृहस्थी के समस्त क्रियाकलापों से अवकाश पाकर उपवाससहित धर्म-स्थान या उपासना - गृह में निवास करते हुए आत्मसाधना में रत रहना गृहस्थ की प्रोषधोपवासप्रतिमा है । प्रोषधोपवास प्रतिमा निवृत्ति की दिशा में बढ़ा हुआ एक ओर चरण है, यह एक दिवस का श्रमणत्व ही है । यह गृहस्थ के विकास की चौथी भूमिका है, जिसमें प्रवृत्तिमय जीवन में रहते हुए भी अवकाश के दिनों में निवृत्ति का आनन्द लिया जाता है । ५. नियम - प्रतिमा — इसे कायोत्सर्ग प्रतिमा एवं दिवामैथुनविरत प्रतिमा भी कहा जाता है । इसमें पूर्वोक्त प्रतिमाओं का निर्दोष पालन करते हुए पाँच विशेष नियम लिये जाते हैं - १. स्नान नहीं करना, २ . रात्रि भोजन नहीं करना, ३. धोती की एक लांग नहीं लगाना, ४ . दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करना तथा रात्रि में मैथुन की मर्यादा निश्चित करना, ५ . अष्टमी, चतुर्दशी आदि किसी पर्व दिन में रात्रि - पर्यन्त देहासक्ति त्याग कर कायोत्सर्ग करना । वस्तुतः इस प्रतिमा में कामासक्ति, भोगासक्ति अथवा देहासक्ति कम करने का प्रयास किया जाता है । ६. ब्रह्मचर्य - प्रतिमा - जब गृहस्थ साधक नियम- प्रतिमा की साधना के द्वारा कामासक्ति पर विजय पाने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है तो वह विकास की इस कक्षा मैथुन से सर्वथा विरत होकर ब्रह्मचर्य ग्रहण कर लेता है और इस प्रकार निवृत्ति की दिशा में एक और चरण बढ़ाता है । इस प्रतिमा में वह ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त १. स्त्री के साथ एकान्त का सेवन नहीं करना, २ . स्त्री वर्ग से अति परिचय या सम्पर्क नहीं रखना, ३. श्रृंगार नहीं करना, ४ . स्त्री जाति के रूप-सौन्दर्य सम्बन्धी तथा कामवर्धक वार्तालाप नहीं करना, ५ . स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठना आदि नियमों का भी पालन करता है । ७. सचित आहारवर्जन-प्रतिमा -- पूर्वोक्त प्रतिमाओं के नियमों का यथावत् पालन करते हुए इस भूमिका में आकर गृहस्थ साधक अपनी भोगासक्ति पर विजय की एक और मोहर लगा देता है और सभी प्रकार की सचित्त वस्तुओं के आहार का त्याग कर देता है एवं उष्ण जल तथा अचित्त आहार का ही सेवन करता है । साधना की इस कक्षा तक आकर गृहस्थ उपासक अपने वैयक्तिक जीवन की दृष्टि से अपनी वासनाओं एवं आवश्यकताओं का पर्याप्त रूप से परिसीमन कर लेता है, फिर भी पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करने की दृष्टि से गार्हस्थिक कार्य एवं २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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