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________________ ३२० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन प्रज्ञा सम्यक् रूप से अपना कार्य नहीं कर सकती, जब कि विवेक ही अध्यात्मिकता की प्रथम शर्त है । दर्शनप्रतिमा में साधक इन कषायों की तीव्रता को कम कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है । यह गृहस्थ-धर्म की प्रथम भूमिका है। शुभ और अशुभ अथवा धर्म और अधर्म के मध्य यथार्थ विवेक दर्शन या दृष्टिकोण की विशुद्धि का तात्पर्य है । इस अवस्था में साधक शुभ को शुभ और अशुभ को अशुभ के रूप में जानता है। लेकिन उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि वह शुभाचरण करे ही । २. व्रत-प्रतिमा-दृष्टिकोण की विशुद्धि के साथ जब साधक सम्यक् आचरण के क्षेत्र में चारित्रविशुद्धि के लिए आगे आता है तो वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का अपनी गृहस्थ मर्यादाओं के अनुरूप आंशिक रूप में पालन करना प्रारम्भ करता है । गृहस्थ जीवन के ५ अणुव्रतों और ३ गुणवतोंका निर्दोषरूप से पालन करना व्रत-प्रतिमा है। इसमें पांच अणुव्रतों और तीन गुणवतों का तो सम्यक् पालन किया जाता है, लेकिन सामायिक आदि शिक्षाव्रतों का यथासमय सम्यक्तया अभ्यास नहीं किया जाता है । वस्तुतः पांच अणुव्रतों और तीन व्रतों की साधना आध्यात्मिक दृष्टि से निषेधात्मक प्रयास है, जबकि सामायिक और प्रोषध आदि की साधना आध्यात्मिक दृष्टि से विधायक प्रयास है। आध्यात्मिक क्षेत्र में निषेधात्मक नैतिक नियमों के पालन और विधानात्मक अभ्यास में जो अन्तर है, वही अन्तर व्रत-प्रतिमा और आगे आनेवाली सामायिक और प्रोषधोपवास प्रतिमाओं में है । व्रत-प्रतिमा गृहस्थ जीवन की दूसरी भूमिका है जिसमें नैतिक आचरण की दिशा में साधक आंशिक प्रयास प्रारम्भ करता है। ३. सामायिक-प्रतिमा--साधना का अर्थ मात्र त्याग ही नहीं वरन् कुछ प्राप्ति भी है । सामायिक-प्रतिमा में साधक 'समत्व' प्राप्त करता है । 'समत्व' के लिए किया जानेवाला प्रयास सामायिक कहलाता है । यद्यपि समत्व एक दृष्टि है, एक विचार है लेकिन वह ऐसा विचार नहीं जो आचरण में प्रकट न होता हो । उसे जीवन के आचरणात्मक पक्ष में उतारने के लिए सतत् प्रयास अनिवार्य है । वैचारिक समत्व जबतक आचरण में प्रकट नहीं होता, वह नैतिक जीवन के लिए अधिक मूल्यवान् नहीं बनता । गृहस्थ उपासक को सामायिक प्रतिमा में नियमित रूप से तीनों संध्याओं अर्थात् प्रातः, मध्याह्न और सायं काल में मन, वचन और कर्म से निर्दोष रूप में 'समत्व' की आराधना करनी होती है। यह गृहस्थ जीवन के विकास की तीसरी भूमिका है । यहाँ अपनी पूर्व प्रतिज्ञाओं (प्रतिमाओं) का पालन करते हुए साधक गृहस्थ जीवन के क्रियाकलापों में से प्रतिदिन नियमित रूप से कुछ समय आध्यात्मिक चिन्तन एवं समत्वभावना के अभ्यास में लगाता है। ४. प्रोषधोपवास-प्रतिमा-साधना की इस कक्षा में गृहस्थ उपासक गृहस्थी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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