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________________ गृहस्थ धर्म ३१९ समाप्त होने पर दो ही विकल्प बचते हैं या तो साधक आगे की दिशा में प्रगति करे अथवा नीचे की ओर लौट जाये । जिस साधक का आत्मबल इतना मजबूत नहीं है कि वह आगे बढ़ सके उसके लिए नीचे उतरने का मार्ग ही शेष रहता है जो कि नैतिक प्रगति की दृष्टि से अच्छा नहीं कहा जा सकता । श्वेताम्बर आगम उपासकदशांग के मूलपाठ में समय-मर्यादा का कोई विधान नहीं है, यद्यपि दशाश्रुतस्कन्ध तथा उपासकदशांग की टीकाओं में एवं बाद के अन्य ग्रन्थों में समय-मर्यादा का निर्देश है। श्वेताम्बर परम्परा में इन विकासात्मक भूमिकाओं को उपवास आदि तपस्या के समान तपविशेष मान लिया गया है, जब कि वस्तुतः ये गृहस्थ-धर्म के निम्नतम रूप से संन्यास के उच्चतम आदर्श तक पहुँचने में मध्यावधि विकास की अवस्थाएँ हैं, जिन पर साधक अपने बलाबल का विचार करके आगे बढ़ता है। ये भूमिकाएँ यही बताती हैं कि जो साधक एकदम निवृत्तिपरक संन्यासमार्ग को ग्रहण नहीं कर सकता, वह गृही-जीवन में रहकर भी उस आदर्श की ओर क्रमशः कैसे आगे बढ़े । अतः यह मानना पड़ेगा कि इन प्रतिमाओं के पीछे दिगम्बर सम्प्रदाय का जो दृष्टिकोण या जो दृष्टि है, वह मूलात्मा के निकट एवं वैज्ञानिक है। श्वेताम्बर परम्परा के आदर्शों में आनन्द आदि श्रावकों का जो वर्णन है, वह भी यही बताता है कि वे क्रमशः विकास की अग्रिम कक्षाओं तक बढ़ते गये, लेकिन पुनः वापस नहीं लौटे। मेरी अपनी दृष्टि में ये प्रतिमाएँ श्रावक-जीवन से श्रमण जीवन तक उत्तरोत्तर विकास की भूमिकाएँ हैं। यद्यपि गुणस्थान-सिद्धान्त भी नैतिक विकास की कक्षाओं का विचार करता है, तथापि गुणस्थानसिद्धान्त से प्रतिमा-सिद्धान्त दो अर्थों में भिन्न है। (१) गुणस्थान-सिद्धान्त में विकास की विवेचना समस्त जीव-जाति को दृष्टि में रख कर की गयी है, जब कि प्रतिमासिद्धान्त का सम्बन्ध केवल गृहस्थ-उपासक वर्ग से है । इस प्रकार इसका क्षेत्र सीमित है। (२) दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि गुणस्थान-सिद्धान्त का सम्बन्ध नैतिक विकास के आध्यात्मिक पक्ष से है, जब कि उपासक प्रतिमा का बाह्य आचरण से है। ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप १. वर्शन-प्रतिमा-साधक की अध्यात्म-मार्ग की यथार्थता के सम्बन्ध में दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा होना ही दर्शनप्रतिमा है। दर्शनका अर्थ है दृष्टिकोण और आध्यात्मिक विकास के लिए दृष्टिकोण की विशुद्धता प्राथमिक एवं अनिवार्य शर्त है । दर्शनविशुद्धि की प्रथम शर्त है क्रोध, मान, माया और लोभ, इस कषाय चतुष्क की तीव्रता में मन्दता । जबतक इन कषायों का अनन्तानुबन्धी रूप समाप्त नहीं होता, दर्शनविशुद्धि नहीं होती। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में मानवीय विवेक को अपहरित कर लेनेवाले क्रोधादि संवेगों के तीव्र आवेग ही प्रज्ञा-शक्ति को कुण्ठित कर देते हैं । अतः जबतक इन संवेगों या तीव्र आवेगों पर विजय प्राप्त नहीं की जाती, हमारी विवेकशक्ति या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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