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________________ ३१८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन त्याग । श्वेताम्बर और दिगम्बर सूचियों में प्रथम चार नामों एवं उनके क्रम में साम्य है । श्वेताम्बर परम्परा में सचित त्याग का स्थान सातवाँ है, जबकि दिगम्बराम्नाय में उनका स्थान पाँचवाँ है। दिगम्बराम्नाय में ब्रह्मचर्य का स्थान सातवाँ है, जबकि श्वेताम्बराम्नाय में ब्रह्मचर्य का स्थान छठा है। श्वेताम्बर परम्परा में परिग्रह त्याग स्वतन्त्र भूमिका नहीं है, जबकि वह दिगम्बर परम्परा में ९वें स्थान पर है । शेष दो प्रेष्यत्याग और उद्दिष्टत्याग दिगम्बर परम्परा में अनुमति त्याग और उद्दिष्टत्याग के नाम से अभिहित है, लेकिन श्वेताम्बर परम्परा में परिग्रह-त्याग को स्वतन्त्र भूमिका नहीं मानने के कारण ११ की संख्या में जो एक कमी होती है उसकी पूर्ति श्रमणभूत नामक प्रतिमा जोड़ कर की गई है जब कि दिगम्बर परम्परा में वह उद्दिष्टत्याग के अन्तर्गत ही है, क्योंकि श्रमणभूतता और उद्दिष्टत्याग समानार्थक ही है। उपासक प्रतिमाओं के क्रम एवं संख्या के सम्बन्ध में कुछ दिगम्बर आचार्यों में भी मतभेद है। स्वामी कार्तिकेय ने इनकी संख्या १२ मानी है । इसी प्रकार आचार्य सोमदेव ने दिवामैथ नविरति के स्थान पर रात्रिभोजनविरति प्रतिमा का विधान किया है।' दोनों परम्पराओं में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह भी है कि सामान्यतया श्वेताम्बर परम्परा में इन प्रतिमाओं के पालन के पश्चात् पुनः पूर्व अवस्था में लौटा जा सकता है, लेकिन दिगम्बर परम्परा में प्रतिज्ञा आजीवन के लिए होती है और साधक पुनः पूर्वअवस्था की ओर नहीं लौट सकता। यही कारण है कि जहाँ दिगम्बर परम्परा में परिग्रह त्याग प्रतिमा को स्वतन्त्र स्थान दिया गया वहाँ श्वेताम्बर परम्परा में उसको स्वतन्त्र स्थान नहीं दिया गया है, क्योंकि साधक यदि पुनः पूर्वावस्था रूप गृही जीवन में लौट सकता है तो उसको परिग्रह की आवश्यकता होगी, अतः साधक मात्र आरम्भ का त्याग करता है परिग्रह का नहीं। श्वेताम्बर परम्परा में प्रतिमाके पालन का न्यूनतम एवं अधिकतम समय निश्चित कर दिया गया है, अधिकतम समय प्रत्येक प्रतिमा के साथ क्रमशः एक-एक मास बढ़ता जाता है और अन्त में ग्यारहवीं श्रमणभूत प्रतिमा को अधिकतम समयावधि ग्यारह मास मान ली गयी है । जब कि दिगम्बर परम्परा में समय मर्यादा का कोई विधान नहीं है। उसमें इन प्रतिमाओं को आजीवन के लिए ग्रहण किया जाता है। गृहस्थ साधना को इन विभिन्न भूमिकाओं के रहने की निम्नतम समय सीमा का अर्थ तो समझ में आता है कि इस अवधि तक उस भूमिका में रहकर साधक अपनी स्थिति एवं मनोबल का इतना विकास कर ले कि अग्रिम भूमिका में जाने पर साधना से पतित होने की सम्भावना न रहे। लेकिन अधिकतम सीमा निर्धारित करने की बात समझ में नहीं आती क्योंकि उस निर्धारित अधिकतम अवधि के १. देखिए, जैन एथिक्स, पृ० १४२, वसुनन्दि श्रावकाचार की भूमिका, पृष्ठ ५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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