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गृहस्थ धर्म
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श्रावक की दिनचर्या-आचार्य हेमचन्द्र ने श्रावक की दिनचर्या का वर्णन करते हुए योगशास्त्र में लिखा है कि श्रावक ब्राह्ममुहूर्त में उठकर धर्म चिन्तन करे, तत्पश्चात् पवित्र होकर अपने गृह-चैत्य में जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करे, फिर गुरु की सेवा में उपस्थित होकर उनकी सेवाभक्ति करे । तत्पश्चात् धर्मस्थान से लौट कर आजीविका के स्थान में जाकर इस प्रकार धनोपार्जन करे कि उसके व्रत-नियमों में बाधा न पहुँचे । इसके बाद मध्याह्नकालीन साधना करे और फिर भोजन करके शास्त्रवेत्ताओं के साथ शास्त्र के अर्थ का विचार करे । पुनः संध्यासमय देव, गुरु की उपासना एवं प्रतिक्रमण आदि षट् आवश्यक क्रिया करे, फिर स्वाध्याय करके अल्पनिद्रा ले । (योगशास्त्र ३।१२१-१३१)
गृहस्थ (उपासक) जीवन में नैतिक विकास की भूमिकाएँ
जैन-दर्शन निवृत्ति-परक है, लेकिन गृहो-जीवन से समग्र रूप में तत्काल निवृत्त हो जाना जन-साधारण के लिए सुलभ नहीं होता। अतः निवृत्ति की दिशा में विभिन्न स्तरों का निर्माण आवश्यक है, जिससे व्यक्ति क्रमशः अपना नैतिक विकास करता हुआ साधना के अन्तिम आदर्श को प्राप्त कर सके । जैन-विचारणा में गही-जीवन में साधना का विकास किस क्रम से धीरे-धीरे आगे बढ़ता जाता है, इसका सुन्दर चित्रण हमें "श्रावकप्रतिमा' की धारणा में मिलता है। प्रतिमा का अर्थ है प्रतिज्ञा विशेष । नैतिक विकास के हर चरण पर साधक द्वारा प्रकट किया हुआ दृढ़ निश्चय ही प्रतिमा कहा जाता है । श्रावक प्रतिमाएँ गृही-जीवन में की जानेवाली साधना की विकासोन्मुख श्रेणियाँ (भूमिकाएं) हैं, जिन पर क्रमशः चढ़ता हुआ साधक अपनी आध्यात्मिक प्रगति कर जीवन के परमादर्श "स्वस्वरूप' को प्राप्त कर लेता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों विचारणाओं में श्रावक प्रतिमाएँ (भूमिकाएँ) ग्यारह है।
श्वेताम्बर सम्मत उपासक भमिकाओं के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं--(१) दर्शन, (२) व्रत, (३) सामायिक, (४) प्रोषघ, (५) नियम, (६) ब्रह्मचर्य, (७) सचित्त-त्याग, (८) आरम्भत्याग, (९) प्रेष्यपरित्याग, (१०) उद्दिष्टभक्त त्याग और (११) श्रमणभूत ।' दिगम्बर सम्मत क्रम एवं नाम इस प्रकार हैं-(१) दर्शन, (२) व्रत, (३) सामायिक, (४) प्रौषध, (५) सचित्त त्याग, (६) रात्रिभोजन एवं दिवामैथुन विरति, (७) ब्रह्मचर्य, (८) आरम्भत्याग, (९) परिग्रहत्याग, (१०) अनुमति त्याग और (११) उद्दिष्ट
१. देखिए, उपासकदशांग (हिन्दी टीका) ११६८, पृ० ११५-१२१; समवायांग ११।१ । २. देखिए, चारित्रपाहुड २२, रत्नकरण्ड श्रावकावार १३७-१४७, वसुनन्दि
श्रावकाचार, ४।
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