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गृहस्थ धर्म
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उपभोगासक्ति की दृष्टि से भी स्वदेशी का व्रत जैन- विचारणा के देशावकाशिक व्रत के पर्याप्त निकट है। जैन- विचारणा के देशावकाशिक व्रत में भी साधक एक विशिष्ट सीमाक्षेत्र के अन्दर की वस्तुओं के उपभोग की मर्यादा बांधता करता है । साध्वी श्री उज्वलकुमारीजी ने देशावकाशिकव्रत की तुलना स्वदेशी के व्रत से की है । " स्वदेशी का एक दूसरा पहलू स्वावलम्बन है अर्थात् जिसका उत्पादन हम नहीं कर सकते उसके उपयोग का हमें अधिकार नहीं है । लेकिन इस कथन पर सामाजिक दृष्टि से ही विचार करना चाहिए । यद्यपि जैन श्रमण की आचार - मर्यादा की दृष्टि से यह पहलू जैन- विचारणा के अधिक निकट नहीं आता, लेकिन जहाँ तक गृहस्थ आचार मर्यादा का प्रश्न है, कुछ प्राचीन दिगम्बर आचार्यों और समकालीन श्वेताम्बर जैन आचार्यों ने स्वावलम्बन की महत्ता पर काफी जोर दिया है । हिंसा-अहिंसा की विवक्षा की दृष्टि से उनका कहना है कि दूसरे के द्वारा व्यावसायिक दृष्टि से बृहद् मात्रा में उत्पादित वस्तुओं के उपभोग से महारम्भ (विशाल पैमाने पर होने वाली हिंसा) का अनुमोदन होता है, क्योंकि वहाँ उत्पादक की दृष्टि विवेकपूर्ण न होकर व्यावसायिक या स्वार्थपूर्ण होती है। ऐसी वस्तु का उपभोग करना विशाल पैमाने पर हिंसा को प्रोत्साहन देना है । अनुमोदित महारम्भ की अपेक्षाकृत अल्पाम्भ सदैव ही श्रेष्ठ है । दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित "शौच" की परम्परा के पीछे भी यही मूल दृष्टि रही है कि एक विचारशील साधक, जो उत्पादन स्वयं करता है, उसमें विवेक की सम्भावना अधिक होती है, अत: वहाँ अल्पारम्भ होता है. महारम्भ नहीं । साधना की दृष्टि से भी यही अधिक मूल्यवान् हैं कि प्रत्यक्ष में होने वाली अल्प हिंसा से बचने के लिए परोक्ष रूप से होने वाली महाहिंसा का भागीदार नहीं बना जाये ।
स्वावलम्बन की सामाजिक दृष्टि यह भी है कि उसमें उपभोग के लिए उत्पादन होता है, व्यवसाय के लिए नहीं । पहली धारणा में उत्पादन के पीछे जो दृष्टि है, वह मात्र आवश्यकताओं की पूर्ति की है, जबकि दूसरी धारणा में उत्पादन के पीछे दृष्टि अर्थलोलुपता की, तृष्णा की है । नैतिक विचारणा के आधार पर दूसरी दृष्टि को उचित नहीं कहा जा सकता । स्वावलम्बन को परस्परावलम्बन का विरोधी भी नहीं मानना चाहिए | स्वावलम्बन का यह अर्थ नहीं है कि मैं किसी अन्य से कुछ न लूँ या किसी को कुछ न दूँ । स्वावलम्बन में भी ऐसा लेन-देन तो होता है, लेकिन उसके पीछे व्यवसाय दृष्टि या स्वार्थबुद्धि नहीं होती है । वह सहयोग है, व्यापार नहीं । जिस प्रकार परिवार के सदस्य परस्पर सहयोग या स्नेह की दृष्टि से लेन-देन करते हैं, ठीक उसी १. श्रावकधर्म, पृ० १५६ ।
२. देखिए - आचार्य जवाहरलालजी महाराज की गृहस्थ अहिंसा व्रत के प्रसंग में अल्पारम्भ महारम्भ की विवेचना |
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