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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अयध्यन
तो रखे लेकिन उस पर अपना स्वामित्व नहीं माने ।' गांधीवाद इस अर्थ में जैन-दर्शन से भी आगे जाता है, वह ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त द्वारा एक सामाजिक अर्थ-व्यवस्था के सिद्धान्त को विकसित करने का प्रयास भी करता है । यद्यपि ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त के पोछे जो अमूर्छा या अनासक्ति का बीजमंत्र है, वह जैनाचार-दर्शन और गीता में पहले से हो मोजूद था। जैन-दर्शन ने परिग्रह की परिभाषा करते हुए यही कहा था कि वास्तविक परिग्रह तो मूर्छा या आसक्ति है ।२ यद्यपि जैन-दर्शन और गीता में अपरिग्रह या अनासक्ति की धारणा का सामाजिक मूल्य है, तथापि अपरिग्रह के आदर्श पर खड़ी हुई समाज-व्यवस्था की परिकल्पना गांधीवादी दर्शन की अपनी मौलिक सूझ है। गांधीवाद की दृष्टि में अपरिग्रह का अर्थ यह नहीं है कि बस हमें जितना आवश्यक है उतना ही संग्रह करेंगे । आवश्यकता की कोई इयत्ता नहीं है, सीमा नहीं है । इसलिए आवश्यकता के नाम पर संग्रह की अभिलाषा समस्या का सही निदान नहीं है, सही निदान है संग्रह की वृत्ति या स्वामित्व की भावना का त्याग । ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त स्वामित्व की वृत्ति का ही निषेध करता है। उसका नारा है 'स्वामी नहीं संरक्षक' ।
६. शरीर श्रम-शरीर श्रम को व्रत का रूप देने का श्रेय गांधीवाद को ही है। शरीरश्रम के व्रत के पीछे सामाजिक सुधार की भावना प्रधान है। सम्पत्ति-निष्ठसमाज श्रम-निष्ठ-समाज के रूप में परिवर्तित हो जायें यही दृष्टि इसके पीछे रही है। वैसे इस व्रत की महत्ता इस बात में है कि मन और शरीर के मध्य श्रम की दृष्टि से भी सांग संतुलन स्थापित किया जाये । बिना श्रम के शरीर नहीं टिकता है, यदि हम इस बौद्धिक युग में शरीरश्रम का महत्त्व भूल जायेंगे तो हमारा शारीरिक संतुलन भी बिगड़ जायेगा। आज भी बुद्धिजीवी वर्ग खेल के बहाने शरीरश्रम करता है, क्यों न इस अनुत्पादक श्रम का उपयोग उत्पादक क्षेत्र में किया जाए ? शरीरश्रम के पीछे एक दृष्टि यह भी है कि जब सभी शारीरिक श्रम करेंगे तो शारीरिक श्रम के प्रति वर्तमान युग में जो होनता की भावना है वह समाप्त हो जावेगी और शारीरिक श्रम करने वाले तुच्छ नहीं माने जावेंगे । श्रम के प्रति निष्ठा उत्पन्न होगी । जैन-दर्शनमें शरीरश्रम का व्रत तो उपलब्ध नहीं, फिर भी जैन-विचारणा में प्रमादाचरण या आलस्य को सदैव ही अनुचित माना गया है ।
७. अस्वाद-अस्वाद को भी गाँधीजी ने एक व्रत माना है । स्वाद रसनेन्द्रिय की 'लोलुपता का अगुआ है और इस प्रकार यह भी आसक्ति का हो एक रूप है। जहाँ स्वाद है वहाँ आसक्ति है । स्वाद की वृत्ति भी लोककल्याण ( सर्वोदय ) में उतनी ही बाधक है, जितनी आसक्ति या संग्रहवृत्ति । अस्वाद का वैयक्तिक मूल्य इन्द्रिय-संयम
१. सर्वोदय-दर्शन, पृ० २८१-८२ ।
२. दशवकालिक, ६।२१ ।
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