SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृहस्थ धर्म गया है । उपासक दशांगसूत्र में कहा गया है श्रमणोपासक को सत्य, तथ्य तथा सद्भूत होने पर भी ऐसे वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए जो अनिष्ट, अप्रिय और अमनोज्ञ हो ।" गांवीजी भी जैन परम्परा के इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखते हैंन बोलना ही अच्छा है यदि कोई उसको अहिंसक तरीके से नहीं बोल सकता हो । -सत्य ३. अस्तेय -- गांधीवाद और जैन दर्शन दोनों ही में अस्तेय को एक व्रत के रूप में स्वीकारा गया है । इतना ही नहीं, गांधीवाद और जैन दर्शन दोनों में अस्तेय का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि चोरी नहीं करना । गांधीवाद और जैन दर्शन इस सीमा से भी आगे गये और उन्होंने कहा कि वस्तु के स्वामो की आज्ञा के बिना वस्तु को लेने का आचरण ही चोरी नहीं है, वरन् लेने की वृत्ति भी चोरी है । जैन- विचारणा के. अनुसार राजकीय (सामाजिक) व्यवस्था के विरुद्ध कार्य करना, अप्रामाणिक माप-तौल का व्यवहार और अनैतिक सम्मिश्रण चोरी है । गांधीजी ने अनावश्यक वस्तुओं के संग्रह को भी चोरी माना है । उनके अपने शब्दों में जिस वस्तु की हमें जरूरत नहीं है, उसे जिसके अधिकार में वह हो, उसके उसकी आज्ञा लेकर भी लेना चोरी है । 3 पास से ४. ब्रह्मचर्य - गांधीवाद की दृष्टि में स्वपत्नीसन्तोष भी ब्रह्मचर्य ही है, क्योंकि विवाह और गृहस्थाश्रम काम वासना को सीमित करने का प्रयास है, वह संयम के लिए है और इसलिए ब्रह्मचर्य है । लेकिन इससे भी आगे बढ़कर जैन दर्शन के समान गांधीबाद भी गृहस्थ जीवन में पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन की सम्भावना को स्वीकर करता है और उस पर जोर भी देता है । गांधीजी का जीवन स्वयं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है । इस प्रकार गांधीवाद और जैन दर्शन में ब्रह्मचर्य के विषय में पर्याप्त साम्य है । इतना नहीं, वैदिक परम्परा से आगे बढ़कर गांधी और जैन दर्शन मानते हैं कि स्त्री को भी ब्रह्मचर्य पालन का पुरुष के समान ही अधिकार प्राप्त है । गांधीजी की दृष्टि में ब्रह्मचर्य का अर्थ है मन, वचन और काया से समस्त इन्द्रियों का संयम । ४ गांधीजी ब्रह्मचर्य को मात्र स्त्री-पुरुष सम्बन्ध तक सीमित नहीं मानते, वरन् उसे अधिक व्यापक बनाते हैं । ३११ ५. अपरिग्रह — गृहस्थ जीवन की मर्यादाओं को लेकर गांधीवाद में अपरिग्रह का व्रत ' ट्रस्टी - शिप' (न्यास सिद्धान्त) के रूप में विकसित हुआ, जबकि जैन दर्शन में परिग्रह परिमाण व्रत के रूप में । गांधीवाद में अपरिग्रह की वृत्ति का अर्थ है अपनी जरूरत की चीज रखने में भी स्वामित्व भाव नहीं रहना चाहिए । मनुष्य अपनी जरूरत की चीजें १. उपासकदशांग, ७।२५७ । ३. गांधीवाणी, पृ० १९ । Jain Education International २. यंग इण्डिया, खण्ड २, पृ० १२९५ । ४. गांधी वाणी, पृ० ९५ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy