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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
है । जैन-दर्शन के समान ही गांधीवाद में भी अहिंसा को व्यापक अर्थों में ग्रहण किया जाता है। गांधीजी लिखते हैं 'कुविचार मात्र हिंसा है । उतावली (जल्दबाजी) हिंसा है । मिथ्याभाषण हिंसा है। द्वेष हिंसा है। किसी का बुरा चाहना हिंसा है । जगत् के लिए जो आवश्यक वस्तु है उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है ।२ अहिंसा के बिना सत्य का साक्षात्कार असम्भव है, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह भी अहिंसा के अर्थ
____ गांधीवाद के अनुसार सामाजिक क्षेत्र में अहिंसा का आधार दूसरों के सुखदुःख को अपना सुख-दुःख मानने में है, राजनैतिक क्षेत्र में अहिंसा का आधार नागरिकों का परस्पर विश्वास और स्नेह है, और आर्थिक क्षेत्र में अहिंसा का आधार सह-उत्पादन और सम-वितरण है । ___गांधीवाद में अहिंसा के आदर्श का विकास 'जीओ और जीने दो' के सिद्धान्त से भी आगे गया है । उसमें अहिंसा का सिद्धान्त 'जिलाने के लिए जीओ' बन गया है ।
२. सत्य-यद्यपि गांधीवाद और जैन-दर्शन दोनों ही सत्य की उपासना पर जोर देते हैं, दोनों के लिए सत्य ही भगवान् है । फिर भी जैनदर्शन का सत्य भगवान्, भगवती अहिंसा के ऊपर प्रतिष्ठित नहीं हो सका। जैनागमों में सर्वत्र अहिंसा सत्य के ऊपर प्रतिष्ठित है, सत्य अहिंसा के लिए है। लेकिन गांधीदर्शन में, सत्य अहिंसा के ऊपर प्रतिष्ठित है, उसमें सत्य का स्थान पहला है, अहिंसा का दूसरा । गांधीवाद में सत्य साध्य है, और अहिंसा साधन । यद्यपि दोनों में अभेद है । गांधीजी के शब्दों में, सत्य की खोज मेरे जीवन की प्रधान प्रवृत्ति रही है, इसमें मुझे, अहिंसा मिली और मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि इन दोनों में अभेद है, सत्य, और अहिंसा एक-दूसरे में ऐसे घुले-मिले हैं कि इनका अलग-अलग करना मुश्किल है। गांधीवाद में सत्य मात्र सम्भाषण या लेखन तक सीमित नहीं, वरन् वह एक दृष्टि है। गांधीवाद के 'सत्य' की तुलना जैन विचारणा के सत्यव्रत की अपेक्षा सम्यग्दृष्टित्व से करना अधिक उपयुक्त होगा।
लेकिन जहाँ तक सत्य का सम्बन्ध सच बोलने से है, वहाँ तक गांधीवाद और जैन परम्परा दोनों ही सत्य को अहिंसा के अधीन कर देते हैं। जैन परम्परा में गृहस्थ साधक के लिए भी ऐसा सत्य सम्भाषण जो अनिष्टकारक एवं अप्रिय हो, वयं माना
१. यंग इण्डिया, ११३, अगस्त १९२० । २. मंगल प्रभात-उद्धृत नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ३१८ । ३. गीता माता-उद्धृत नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ३१८ । ४. सर्वोदय दर्शन, पृ० २७९ ।
५. सर्वोदय दर्शन, पृ० २७७ ।
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