________________
३०८
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदशनों का तुलनात्मक अध्ययन
सदा भोजन के लिए लालायित न रहे, जितना जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक हो उतना ही अन्न पेट में डाले । (उपभोग-परिभोगवत)।
७. केवल अपने लिए भोजन नहीं बनाये ।' उसे ऐसे सभी लोगों को, जो अपने हाथ से भोजन नहीं पकाते (संन्यासी आदि), सदा ही अन्न देना चाहिए, क्योंकि गृहस्थाश्रम में संविभाग की विधि है । जिस गृहस्थ के घर में अतिथि भिक्षा न पाने के कारण निराश लौट जाता है। वह गृहस्थ को अपना पाप देकर उसका पुण्य ले जाता है । ( अतिथि संविभागबत )।
८. ब्राह्मण दान से, क्षत्रिय युद्ध (सैनिक वृत्ति) से, वैश्य न्यायपूर्वक व्यवसाय या खेती आदि से और शूद्र सेवा से आजीविका उपाजित करे । विशेष अवस्था में ब्राह्मण और शूद्र व्यापार, पशुपालन और शिल्प-कला से भी अपनी आजीविका उपार्जित कर सकते हैं । महाभारत के अनुसार-नाचना आदि रंगमंचके कार्य, बहुर पिये का कार्य, मदिरा और मांस का व्यवसाय, लोहे एवं चमड़े का व्यवसाय निन् है और इन्हें छोड़ने की सलाह दी गई है ।६ ब्राह्मण के लिए मांस, मदिरा, मधु (शहद), नमक, तिल, बनायी हुई रसोई, घोड़ा, बैल, गाय, बकरा आदि पशुओं का व्यापार निषिद्ध माना गया है। (निषिद्ध आजीविका)।
वैदिक परम्परा के गृहस्थ आचार का जैन-परम्परा से प्रमुख अन्तर यज्ञ विधान को लेकर है। वैदिक परम्परा में गृहस्थ के लिए इन पाँच यज्ञों का विधान है१. भूतयज्ञ (प्राणियों को अन्न प्रदान करना), २. मनुष्य-यज्ञ (अतिथि पूजन), ३. देवयज्ञ (होम), ४. पितृ-यज्ञ (श्राद्ध) ५. ब्रह्म-यज्ञ (वेदपाठ स्वाध्याय)। यदि विचारपूर्वक देखें तो उपर्युक्त पाँच यज्ञों में मात्र देव-यज्ञ (होम) और पितृ-यज्ञ (श्राद्ध) यही दो ऐसे हैं जिनका सम्बन्ध जैन विचारधारा से नहीं है। गांधी जी की व्रत-व्यवस्था और जैन परम्परा ___ वर्तमान युग में गांधीवादी दर्शन में जिन एकादश व्रतों का विधान है, उनका जैन
१. महाभारत शान्तिपर्व, २६९।२६ । २. वही, २४३१५-११ । ३. वही, १९१।१२।
४. वही, २९४।१। ५. वही, २९४।३-४ ।
६. वही, २९४।५-६ । ७. वही, ७८।४-५ ।
देखिए-महाभारत शान्तिपर्व अ० २६२, २६३ ८. अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य असंग्रह ।
शरीर-श्रम अस्वाद सर्वत्र भय वर्जन ॥ सर्वधर्मी समानत्व स्वदेशी समभावना। ही एकादशे सेवावी नम्रत्वे व्रत निश्चये ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org