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________________ गृहस्थ धर्म ३०५ भोग-परिभोग व्रत का ही आंशिक रूप माना जा सकता है। दूसरी अपेक्षा से विकाल भोजन, माल्यगन्धधारण और उच्च शय्या परित्याग तीनों शील उपोषण के विशेष अंग होने से जैन प्रोषघ व्रत से तुलनीय हैं । बौद्ध विचारणा में भी गहस्थ उपासक के लिये निषिद्ध व्यवसायों का उल्लेख है। अन्तर यही है कि जैन विचारणा में उनकी संख्या १५ है, जब कि बौद्ध विचारणा में वे वल ५ है । जहाँ जैन-विचारणा के द्वारा गहस्थ उपासक के लिए पांच अणुव्रतों की व्यवस्था है, वहाँ बौद्ध विचारणा में पंचशील की व्यवस्था है । लेकिन फिर भी दोनों में अन्तर यह है कि बौद्ध विचारणा में भिक्षु एवं गृहस्थ उपासक के लिए आचरणीय पंचशील में कोई अन्तर नहीं है । गृहस्थ उपासक की सीमाओं का ध्यान रखकर उनमें कोई संशोधन नहीं किया गया है। उदाहरणार्थ-सुत्तनिपात में गृहस्थ धर्म के उपदेश में गृहस्थ उपासक के लिए त्रस एवं स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा का निषेध है, जब कि गृहस्थ उपासक का स्थावर प्राणियों की हिंसा से विरत होना सम्भव नहीं है। जैन विचारणा भिक्षु के पांच महाव्रतों को काफी लचीला बनाकर अणुव्रतों के रूप में उन्हें गृहस्थ उपासक के लिए प्रस्तुत करती है । जिससे उन व्रतों की प्रतिज्ञाओं का सम्यक् परिपालन असंभव न हो। दूसरे, जहाँ जैन विचारणा में अणुव्रतों की प्रतिज्ञा का विधान अधिकांश रूप में मनसा कृत, वाक्कृत, कर्मणाकृत, ( करना ) मनसाकारित, वाक्कारित और कायकारित (करवाना) इन छ: भंगों या छ: से कम भंगों से किया गया है, वहाँ बौद्ध-विचारणा में ९ भंग का विधान किया गया लगता है, क्योंकि सुत्तनिपात में जहाँ हिंसा विरमण, मृषा विरमण और अदत्तादान विरमण में कृत, कारित और अनुमोदित की कोटियों का विधान किया गया है जो मनसा, वाचा, कर्मणा की दृष्टि से नौ बन जाती है। जैन विचारणा केवल साधु के लिए ही नवभंग (नवकोटि) प्रतिज्ञा का विधान करती है । यद्यपि ब्रह्मचर्य या परस्त्री अनतिक्रमण की प्रतिज्ञा में जैन और बौद्ध दोनों दृष्टि भंग विधान नहीं करती है ऐसा सुत्तनिपातके उपरोक्त वर्णन से लगता है । वहाँ मात्र यही कहा गया है कि ब्रह्मचर्य का पालन असम्भव हो तो परस्त्री का अतिक्रमण न करे । काल-दृष्टि से विचार करने से जैन विचारणा में ५ अणुव्रतों और तीन गुणवतों की प्रतिज्ञा जीवन पर्यन्त के लिए होती है, इनके प्रतिज्ञा सूत्रों से इसकी पुष्टि होती है। बौद्ध विचारणा में भी पंचशील को यावज्जीवन के लिए ग्रहण किया जाता है। शेष तीन शील जिन्हें उपोषथ शील भी कहा जाता है, शिक्षाव्रतों के समान एक विशेष समयावधि (एक दिन) के लिए ही ग्रहण किये जाते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध परम्परा में वर्णित गृहस्थ-आचार जैन परम्परा से बहुत कुछ साम्य रखता है। १. उपासकदशांग, अध्ययन १ । २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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