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________________ ३०४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन निषिद्ध व्यापार परित्याग'-पाँच व्यापार उपासक के लिए अकरणीय है । (१) अस्त्रशस्त्रों का व्यापार, (२) प्राणियों का व्यापार, (३) मांस का व्यापार, (४) मद्य का व्यापार, (५) विष का व्यापार । इन पाँच व्यवसायों का परित्याग कर किसी धार्मिक व्यापार में लगे ( पयोजये धम्मिकं सौ वाणिज्ज-सुत्तनिपात २५।२९ )। भगवान् बुद्ध ने भी भगवान् महावीर के पाँच अणुव्रतों के समान ही गृहस्थ उपासकों के लिए पांच शीलों का उपदेश किया है । बौद्ध विचारणा के गृहस्थ जीवन के पाँच शील जैन-विचारणा के अणुव्रतों के समान ही हैं, अन्तर केवल यह है कि भगवान् बुद्ध का पाँचवाँ शील मद्य निषेध है, जबकि जैन विचारणा का पाचवाँ अणुव्रत परिग्रह परिमाण है । ऐसा प्रतीत होता है कि बौद्ध विचारणा में गृहस्थ उपासक के लिए परिग्रह-मर्यादा को इतना अधिक महत्त्व प्रदान नहीं किया गया जितना कि जैन परम्परा में उसे दिया गया है । यद्यपि बद्ध के अनेक वचन परिग्रह की मर्यादा का संकेत करते हैं । भगवान् बुद्ध कहते हैं कि 'जो मनुष्य खेती, वास्तु (मकान), हिरण्य (चाँदी, स्वर्ण), गो, अश्व, दास, बन्धु इत्यादि की कामना करता है, उसे वासनाएँ दबाती हैं और बाधाएँ मर्दन करती हैं । तब वह पानी में टूटीनाव की तरह दुःख में पड़ता है । बौद्ध विचारणा के मद्य निषेध का महत्त्व तो जैन विचारणा में स्वीकार किया गया लेकिन उसके लिए स्वतन्त्र अणुव्रत को मान्यता जैनागमों में नहीं है। मद्य-निषेध को सातवें उपभोग-परिभोग नाम अणुव्रत के अन्तर्गत ही मान लिया गया है। यदि हम बौद्धविचारणा की दृष्टि से गृहस्थ-धर्म का विवेचन करें तो हमें जैन विचार सम्मत गृहस्थ जीवन के बारह व्रतों की धारणा के स्थान पर अष्टशील एवं भिक्षु संघ संविभाग की धारणा मिलती है । (१) हिंसा-परित्याग (प्राणातिपात विरमण), (२), चोरी परित्याग (अदत्तादान विरमण), (३) अब्रह्मचर्य परित्याग या परस्त्री अनातिक्रमण (मैथुन विरमण या स्वपत्नी सन्तोष व्रत), (४) असत्य परित्याग (मृषावाद विरमण), (५) मद्यपान परित्याग, (६) रात्रि ए : विकाल भोजन परित्याग, (७) माल्य गन्ध धारण परित्याग, (८) उच्च शय्या परित्याग । (अन्तिम तीन शीलों का सम्बन्ध उपोषथ है।) (९) भिक्षु संघ संविभाग (अतिथि संविभाग व्रत)। तुलना इस प्रकार जैन विचारणा के परिग्रह परिमाण व्रत एवं दिशा परिमाण व्रत का विवेचन बौद्ध विचारणा में स्पष्ट रूप से उपलब्ध नहीं होता है। जैन विचारणा के सामायिक व्रत को सम्यक्समाधि के अन्तर्गत माना जा सकता है यद्यपि उसका शोल (व्रत) के रूप में निर्देश बौद्ध-ग्रन्थों में नहीं है। इसी प्रकार जैन देशावकाशिक व्रत को बौद्ध उपोषय के अन्तर्गत तथा बोद्ध मद्यपान एवं रात्रि भोजन परित्याग को जैन उप-: १. अगुत्तरनिकाय, निपात ५, पु० ४०१ । २. सुत्तनिपात, ३९।४-५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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