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________________ ३०२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन वे विभिन्न पिटक ग्रन्थों में यत्रतत्र बिखरे मिलते हैं। फिर भी बौद्ध विचारणा में जैन विचारणा के समान गृहस्थ उपासकों के लिए आवश्यक गुणों ( मार्गानुसारी गुण ) एवं व्रतों का विधान मिलता है। सर्वप्रथम जैन विचारणा के समान ही बौद्ध विचारणा में भी गृहस्थ उपासक के लिए सम्यक् श्रद्धा को आवश्यक माना गया है। बुद्ध का निर्देश यही है। गृहस्थ को बद्ध, धर्म और संघ में श्रद्धा रखनी चाहिये । अंगुत्तरनिकाय में सारिपुत्त के प्रति बुद्ध यही कहते हैं कि जो साधक बुद्ध, धर्म और संघ में श्रद्धा रखता हुआ नैतिक आचरण से समन्वित होता है, वही साधना के सम्यक् मार्ग में प्रविष्ट होता है । आर्य-श्रावक बुद्ध के प्रति अविचल श्रद्धा से युक्त होता है, वह भगवान अर्हत् हैं, सम्यक्सम्बुद्ध हैं, विद्या तथा आचरण से युक्त हैं, सुगत हैं, लोकविद् हैं, अनुपम हैं, ( दुष्ट ) पुरुषों का दमन करनेवाले सारथी है, देवताओं तथा मनुष्यों के शास्ता हैं । आर्य-श्रावक धर्म के प्रति अविचल श्रद्धा से युक्त होता है-भगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म अच्छी प्रकार समझाकर देशना किया गया है, वह सांदृष्टिक ( प्रत्यक्ष ) धर्म है, वह काल के बंधन से परे है, उसके बारे में यह कहा जा सकता है कि आओ और स्वयं परीक्षा करके देख लो, (निर्वाण की ओर ) ले जानेवाला है, प्रत्येक विज्ञ पुरुष स्वयं जान सकता है । आर्य-श्रावक संघ के प्रति अविचल श्रद्धा से युक्त होता है-भगवान् का श्रावक-संध सुप्रतिपन्न है, भगवान् का थावक संघ ऋजु (मार्ग में ) प्रतिपन्न है, भगवान् का श्रावक संघ न्याय (मार्ग पर) प्रतिपन्न है, भगवान् का श्रावक संघ उचित पथ पर प्रतिपन्न है । यह आदर करने योग्य है। यह सत्कार करने योग्य है। यह दक्षिणा के योग्य है । यह हाथ जोड़ने योग्य है । यह अशुद्ध चित्त की शुद्धि का कारण होता है तथा मैले चित्त की निर्मलता का कारण होता है।' दीघनिकाय में बुद्ध ने गृहस्थ-जीवन के व्यावहारिक नियमों का भी प्रतिपादन किया हैं । बुद्ध कहते हैं-(१) नीतिपूर्वक सदैव प्रयत्नशील रहता हुआ धनार्जन करे, क्योंकि प्रयत्नशील रहने से ही ऐश्वर्य में वृद्धि होती है ।२ (२) उपाजित धन के एक भाग का उपभोग करे, दो भागों को पुनः व्यवसाय में लगावे तथा एक भाग को भविष्य के आपत्ति काल के लिए सुरक्षित रखे । (३) परिवार एवं समाज का योग्य रीति से परिपालन करे । गृहस्थ उपासक के लिए माता-पिता पूर्व दिशा है, आचार्य (शिक्षक) दक्षिण दिशा है, स्त्री एवं पुत्र पश्चिम दिशा है, मित्र एवं अमात्य उत्तर दिशा है, दास एवं नौकर कर्मकर (शिल्पी) अघोदिशा है, श्रमण ब्राह्मण उर्ध्व दिशा है। गृहस्थ को अपने कुल में इन छहों दिशाओं को अच्छी तरह नमस्कार करना चाहिए अर्थात् इनकी यथायोग्य सेवा १. अंगुत्तरनिकाय, ५ । २. दीघनिकाय, ३।८।४। ३. वही, ३।८।४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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