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________________ गृहस्थ धर्म ३०१ चित विभाग ( संविभाग ) करके, अतिथि अथवा अतिथिगण को उनके द्वारा अपेक्षित योग्य वस्तु का दान कर देना गृहस्थ का अतिथि-संविभागबत है। अतिथि-संविभागवत का मूलाशय यह है कि गृहस्थ के कर्तव्यों की सीमा केवल अपने और अपने परिजनों की आवश्यकताओं की पूर्ति तक ही नहीं रहे, वरन् उसमें निःस्वार्थ भाव से समाजसेवा करने की वृत्ति भी जागृत होवे, यद्यपि आचार्य भिक्षु आदि कुछ जैन विचारकों की दृष्टि में गृहस्थ के अतिथि-संविभागवत में अतिथि शब्द का अर्थ जैन श्रमण एवं श्रमणी तक ही सीमित है, लेकिन श्रावकप्रज्ञप्ति में श्रमण, श्रमणी, श्रावक एवं श्राविका इन चारों को ही अतिथि कहा गया है। इस प्रकार श्रमण, श्रमणी, श्रावक तथा श्राविका को गृहस्थ के द्वार पर उपस्थित होने पर उनका भक्तिपूर्वक सम्मान करके अपनी साम्पत्तिक अवस्था के अनुरूप उन्हें अन्न, पान, वस्त्र, औषध एवं निवासस्थान आदि प्रदान करना गृहस्थ का अतिथि संविभागवत है। अपनी विस्तृत परिभाषा में सच्चरित्र त्यागी महात्मा, सामाजिक बन्धुगण और दीन-दुःखी वृद्ध एवं रोगियों की भक्ति एवं प्रेमपूर्वक निःस्वार्थ सेवा, करना ही जैन गृहस्थ के अतिथि-संविभागवत का अन्तिम आदर्श है। आचार्य हरिभद्र योगशतक में गुरु, देव, अतिथि आदि के पूजा सत्कार तथा दीनजनों को दान देने का विधान करते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने योगबिन्दु में गुरु की विस्तृत परिभाषा देकर उसे और विस्तृत बना दिया है। वे कहते हैं माता, पिता, कलाचार्य, उनके सम्बन्धी, वृद्धजन और धर्मोपदेशक सभी गुरु वर्ग में आते हैं । गृहस्थ को इन सबकी योग्य सेवाशुश्रुषा करनी चाहिये। इस व्रत के अतिचारों ( दोषों ) की विवेचना में मुख्य दृष्टि जैन भिक्षु एवं भिक्षुणी को दिये जाने वाले दान से सम्बन्चित ही है। अतिथि-संविभागवत के पाँच दोष ( अतिचार ) हैं-(१) सचित्त निक्षेपण-साधु को दिये जाने योग्य आहार में किसी सचित्त ( सजीव ) वस्तु को मिला देना, जिससे वह उसके ग्रहण करने योग्य न रहे । (२) सचित्तापिधान---अदानबुद्धि से उनके ग्रहण करने योग्य निर्दोष वस्तु को किसी सचित्त वस्तु से ढंक देना । (३) कालातिक्रम-भिक्षा का समय व्यतीत होने के पश्चात् भोजन तैयार करना । (४) परव्यपदेश-न देने की भावना से अपनी वस्तु को दूसरे की बताना । (५) मात्सर्य-ईया-बुद्धि से दान देना या कृपणतापूर्वक दान देना । इसके अतिरिक्त स्वयं दान नहीं देने से, दान देने वाले को दान देने से रोकने से तथा दान देकर पश्चात्ताप करने से भी व्रत भंग होता है। बौद्ध विचारणा में गृहस्थ धर्म बौद्धदर्शन में गृहस्थ उपासकों के लिए आचरण के जो नियम प्रस्तुत किए गये हैं १. देखिए-अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ७, पृ० ८१२ । २. योगशतक, २५ । ३. देखिए-समदर्शी हरिभद्र, पृ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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