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________________ ३०० जैन, बौद्ध तथा गौता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन तू आ सभी वस्त्रों का त्याग कर इस प्रकार व्रत ले-'न मैं किसी का कुछ हैं और न मेरा कहीं कोई कुछ है' किन्तु उसके माता-पिता जानते हैं कि यह मेरा पुत्र है और पुत्र भी जानता है कि ये मेरे माता-पिता हैं; 'उसके दास-नौकर जानते हैं यह हमारा स्वामी है और वह भी जानता है कि ये मेरे दास-नौकर हैं। जिस समय ऐसा व्रत लेते हैं वे झूठा व्रत लेते हैं, इस प्रकार वे मृषावादी होते हैं। उस रात्रि के बीतने पर (त्यक्त) वस्तुओं को बिना किसी के दिये ही उपयोग में लाते हैं, इस प्रकार चोरी करनेवाले होते हैं । ___ वर्तमान में पिटक साहित्य में उल्लेखित इन शब्दों का उपयोग अन्यत्व की भावना का चिन्तन करते समय किया तो जाता है, लेकिन किसी भी व्रत की प्रतिज्ञा ग्रहण करने में नहीं होता है, लेकिन किसी समय प्रतिज्ञा सूत्र में शब्द अवश्य रहे होंगे, क्योंकि ऐसा ही आक्षेप आजीवक सम्प्रदाय द्वारा निर्ग्रन्थ सामायिकव्रत के सम्बन्ध में उठाया गया था। भगवती सूत्र में इस आक्षेप का रूप निम्न है- उपाश्रय में सामायिक लेकर बैठे हुए श्रावक वस्त्राभरणादि और स्त्री का त्याग करते हैं । उस समय उनके वस्त्राभरण को कोई उठा ले या उनकी स्त्री के साथ कोई संसर्ग करे, व्रत के पूरे होने पर क्या वे अपने वस्त्राभरण खोजते हैं या अन्य के, उनकी त्यक्त स्त्री से जिसने संसर्ग किया उसने उनकी स्त्री का संसर्ग किया या अन्य की ? महावीर ने इसके समाधान में उत्तर दिया कि "वे अपने ही वस्त्रादि खोजते हैं, अन्य के नहीं और इस तरह स्त्री-संग करने वाले ने उनकी स्त्री का ही संसर्ग किया अन्य का नहीं, ऐसा मानना चाहिए। क्योंकि श्रावक ने मर्यादित समय के लिए उनका त्याग किया था, मन से बिलकुल ममत्व नहीं छोड़ा था ।' जो उत्तर आजीविकों के आक्षेप का है वह उत्तर बुद्ध के आक्षेप का भी है, क्योंकि वह मर्यादित समय के लिए त्याग करता है, अतः उस अवधि के समाप्त होने पर वह न तो चोरी का भागी है और न प्रतिज्ञा लेते समय असत्य सम्भाषण ही करता है । १२. अतिथि-संविभागवत - यह व्रत गहस्थ एवं श्रमण संस्था के पारस्परिक सहयोग के रूप में गृहस्थ उपासक का एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है । गृहस्थ उपासक के लिए अतिथि-सेवा का महत्त्व न केवल जैन परम्परा में, वरन् वैदिक और बौद्ध परम्परा में भी स्वीकार किय। गया है। अतिथि वह होता है जिसके आगमन की तिथि ( समय ) पूर्व निर्धारित नहीं होती है और ऐसे अतिथि के लिए अपने निमित्त बनायी गयी अपने अधिकार की वस्तुओं में से समु १. अंगुत्तरनिकाय, ३१७० । २. भगवतोसूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति) शतक ८ उद्देशक ५, देखिए-दर्शन और चिन्तन भाग २, पृ० १०४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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