SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृहस्थ धर्म २९९ उपोसथ (व्रत) तीन प्रकार का होता है १. गोपाल उपोसथ, २. निर्ग्रन्थ उपोसथ, ३. आर्य उपोसथ । निर्ग्रन्थ उपोसथ की आलोचना में बुद्ध दो आक्षेप प्रस्तुत करते हैं१. दिशामर्यादा के द्वारा समस्त प्राणियों के प्रति दयाभाव व्यक्त नहीं होता, २. दूसरे प्रोषध में जो अन्यत्व की भावना की जाती या जिस भेद-विज्ञान का अभ्यास किया जाता है वह एक असत्य सम्भाषण है। पहली आलोचना के सम्बन्ध में बुद्ध कहते हैं, "हे विशाखे, निर्ग्रन्थ श्रमणों की एक जाति है । वे अपने मतानुयायियों को इस प्रकार का ब्रत लिवाते हैं-हे पुरुष तू यहाँ है । पूर्व दिशा में, पश्चिम दिशा में, उत्तर दिशा में, दक्षिणा दिशा में सौ योजन तक जितने प्राणी है उन्हें तू दण्ड से मुक्त कर ।' अर्थात् उनकी हिंसा करने का त्याग कर' इस प्रकार कुछ प्राणियों के प्रति दया व्यक्त करते हैं, कुछ के प्रति दया व्यक्त नहीं करते । वस्तुतः यह आक्षेप देशावकाशिक व्रत के सम्बन्ध में है, जो प्रोषध को प्राथमिक अवस्था है । यद्यपि बुद्ध के इस कथन में कुछ सत्यांश है, लेकिन जैन विचारकों का कहना यह है कि व्यक्ति सम्पूर्ण हिंसा का त्याग करे यह उत्तम बात है, वे स्वयं भी प्रोषध व्रत में सम्पूर्ण हिंसा का त्याग ही करवाते हैं । लेकिन यदि साधक सम्पूर्ण हिंसा का परित्याग करने की स्थिति में नहीं है, तो क्या उसे आंशिक हिंसा से विरत कराना उचित नहीं है ? कुछ नहीं से तो कुछ उत्तम है । सम्यक् आचरण की दिशा में जितना भी आगे बढ़ा जा सके उतना उत्तम ही है । दूसरे, बुद्धि की विचार दृष्टि में मानसिक पहलू प्रमुख है। मानसिक दृष्टि से हिंसा एक अशुभ विचार है और उसका समग्र रूप में ही परित्याग होना चाहिए, लेकिन महावीर की दृष्टि क्रिया के मानसिक पहलू के साथ भौतिक पहलू पर भी जाती है । हिंसा का विचार अशुभ है, अतः उसकी अशुभता को स्वीकार कर लेना मात्र पर्याप्त नहीं, लेकिन उसे बाह्याचरण में प्रकट करना भी अनिवार्य है । कभीकभी ऐसे प्रसंग आते हैं, जब बुराई को बुराई समझते हुए भी परिस्थितिवश उसका आचरण करना पड़ जाता है । अहिंसा के आदर्श को स्वीकार कर लेने पर भी हिंसा से सर्वथा बच पाना सम्भव नहीं होता । बुद्ध का हिंसा से तात्पर्य प्राणी जगत् और वनस्पति जगत् तक है, जबकि महाबीर का हिंसा से तात्पर्य न केवल प्राणी जगत् और वनस्पति जगत् तक है, वरन् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु को भी वे जीवनयुक्त मानकर उनकी हिंसा को भी हिंसा मानते हैं और ऐसी हिंसा का पूर्णरूपेण त्याग गृहस्थ जीवन में सम्भव नहीं होता है, अतः यथाशक्ति किया जानेवाला आंशिक त्याग अश्रेयस्कर नहीं माना जा सकता। दूसरी आलोचना में बुद्ध का आक्षेप अन्यत्व की भावना के प्रसंग को लेकर है। बुद्ध कहते हैं, वे (निर्ग्रन्थ) उपोसथ-दिन पर श्रावकों से ऐसा व्रत लिवाते हैं हे पुरुष, १. अंगुत्तरनिकाय, ३।७० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy