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________________ २९८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन उच्चार-प्रसवण भूमि-ठीक-ठीक बिना देखे शौच या लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना, ४. अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित उच्चार प्रस्त्रवण भूमि-अप्रमार्जित शौच या लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना। इन चारों दोषों का विधान प्रमुखतः हिंसा-अहिंसा की विवक्षा से हुआ है । ५. प्रोषधोपवास का सम्यक रूप से पालन नहीं करना अर्थात् प्रोषध में निन्दा. विकथा. प्रमादादि का सेवन करना। बौद्ध विचारणा में उपोसथ (प्रोषध)-जैन-परम्परा की भाँति बौद्ध परम्परा में भी प्रारम्भ से ही उपोसथ व्रत गृहस्थ उपासक का एक आवश्यक कर्तव्य रहा है । दोनों में इसके आचरण की तिथियाँ भी एक ही थीं। सुत्तनिपात में कहा गया है प्रत्येक पक्ष की चतुर्दशी, पूर्णिमा, अष्टमी और प्रतिहार्य पक्ष को इस अष्टांग उपोसथ का श्रद्धापूर्वक सम्यक् रूप से पालन करना चाहिए।' बौद्धपरम्परा में उपोसथ के नियम लगभग जैन परम्परा के समान ही हैं । यथा-१. प्राणिवध न करे, २. चोरी न करे, ३. असत्य न बोले; ४. मादक द्रव्य का सेवन न करे; ५. मैथुन से विरत रहे; ६. रात्रि में विकाल भोजन न करे; ७. माल्य एवं गधं का सेवन न करें; ८. उच्च शय्या का परित्याग कर काठ या जमीन पर शयन करे-ये अष्टशील उपोसथ शील कहे जाते हैं,२ जिनका उपोसथ के दिन गृहस्थ उपासक पालन करता है । महावीर की परम्परा में भोजन सहित जो प्रोषध किया जाता है वह देशावकाशिक व्रत कहलाता है । बौद्ध परम्परा में उपोसथ में विकाल भोजन का त्याग कहा गया, जबकि जैन परम्परा प्रोषध में सभी प्रकार के भोजन का निषेध करती है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी बातों में लगभग समानता है। प्रोषध के पीछे जो विचार-दृष्टि है, वह यही है कि गृहस्थ जीवन के प्रपंचों से अवकाश पा सप्ताह में एक दिन धर्माराधना की जाये। ईसाई एवं यहूदी परम्परा में मूसा के 'दस आदेशों' या 'धर्म आज्ञाओं' में एक आज्ञा यह भी है कि सप्ताह में एक दिवस विश्राम लेकर पवित्राचरण करना, जो कि इसी उपोसथ या प्रोषध का ही एक रूप थी, चाहे वह आज कितनी ही विकृत क्यों न हो गयी हो। बौद्ध-परम्परा में प्रोषध या उपोसथ का आदर्श अर्हत्व की प्राप्ति है। भगवान् बुद्ध कहते हैं क्षीणास्रव अर्हत् का यह कथन समुचित है कि जो मेरे सदृश होना चाहे वह पक्ष की चतुर्दशी, पूर्णिमा, अष्टमी तथा प्रतिहार्य पक्ष को अष्टांग शीलयुक्त उपोसथ व्रत का आचरण करे । उपोसथ व्रत आजीवक सम्प्रदाय और वेदान्त-परम्परा में थोड़े-बहुत प्रकारान्तर से प्रचलित थे।" बौद्ध विचारणा में निर्ग्रन्थ उपोसथ की आलोचना और उसका उत्तर-बौद्ध विचारणा में अंगुत्तरनिकाय में निर्ग्रन्थ उपोसथ की आलोचना भी की गयी है । बुद्ध कहते हैं, १. सुत्तनिपात, २६।२८ । २. सुत्तनिपात, २६।२५-२७ । ४. अंगुत्तरनिकाय, ३।३७ । ३. बाइबल ओल्ड टेस्टामेंट, निर्गमन २० । ५. दर्शन और चिन्तन, भाग २, पृ० १०५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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