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________________ गृहस्थ धर्म २९७ या ले जाना, ३. शब्दानुपात-निर्धारित क्षेत्र के बाहर किसी को खड़ा देखकर शब्द संकेतकरना ( खांसकर या आवाज देकर ) ४. हाथ आदि अंगों से संकेत करना, ५. पुद्गल-प्रक्षेप-बाहर खड़े हुए व्यक्ति को अपना अभिप्राय जताने के लिए कंकड़ आदि फेंकना। ११. प्रोषधोपवास व्रत __यह गृहस्थ उपासक का शिक्षावत है। श्वेताम्बर परम्परा में शिक्षाव्रतों में यह तीसरा है । आत्मगवेषणा या स्वस्वरूप का बोध, धर्माराधना और गृहस्थ जीवन को क्रियाओं से यथासम्मव निवृत्ति का प्रयास यही मूलदृष्टि इन शिक्षाव्रतों के पीछे है । सामायिक देशावकाशिक और पोषधोपवास व्रतों में क्रमशः इस दृष्टि का विकास अवलोकनीय है । सामायिक में साधक जीवन की सावध प्रवृत्तिओं से दूर हटकर समत्व की आराधना और स्वस्वरूप के बोध का कुछ समय (४८ मिनिट) के लिए अभ्यास करता है । देशावकाशिक व्रत में समय की यह सोमा १२ से १५ घंटे की और प्रोषध में सम्पूर्ण दिवस की हो जाती है । गृहस्थ उपासक जीवन के झंझावातों से दूर हटकर कम से कम सप्ताह में एक दिवस धर्माराधना और आत्मगवेषणा या भेद विज्ञान की चिन्तना में व्यतीत करे, यही इस व्रत का उद्देश्य है। बौद्धागम अंगुत्तरनिकाय के सन्दर्भ से भी ऐसा लगता है कि सावध प्रवृत्तियों से बचने के विचार के साथ-साथ भेद-विज्ञान का अभ्यास ही इस व्रत की आराधना का प्रमुख प्रयोजन था। प्रोषध शब्द उपवसथ से बना है जिसका अर्थ है निकट वास करना । अपने आपके निकट रहना अर्थात् पर-स्वरूप से अलग स्वस्वरूप में स्थित रहना, यही प्रोषध का सच्चा अर्थ है। इस व्रत की आराधना प्रत्येक पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, तथा अमावस्या और पूर्णिमा को की जाती है। साधक दिन भर धर्मस्थान या उपासनागृह में निवास करता है । ____ इस व्रत की आराधना में सम्पूर्ण दिवस (२४ घंटे) के लिए निम्न बातों के त्याग की प्रतिज्ञा की जाती है-१. सभी प्रकार के अन्न, जल, मुखवास (पान-सुपारी आदि) और मेवा (सूखे फल आदि) चारों प्रकार के आहार का त्याग, २. कामभोग का त्याग अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन, ३. रजत, स्वर्ण एवं मणिमुक्ता आदि के बहुमूल्य आभूषणों का त्याग, ४. माल्य, गंध धारण का त्याग, ५. हिंसक उपकरणों एवं समस्त दोषपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग । इस व्रत के पाँच प्रमुख दोष (अतिचार)--१. अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-शय्या संस्तार-बिना देखे-भाले शय्या आदि का उपयोग करना, २. अप्रमाजित-दुष्प्रमार्जित शय्या-संस्तार-अप्रमार्जित शय्यादि का उपयोग करना, ३ अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित १. दर्शन और चिन्तन, भाग २, पृ० १००-१०७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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