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________________ २९६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन के आकुंचन और प्रसारण करना, (७) आलस्य, (८) शरीर के अंगों को मोड़ना, (९) शरीर के मलों का विसर्जन करना, (१०) शोकग्रस्त मुद्रा में बैठना, बिना प्रमार्जन के अंगों का खुजलाना, (११) निद्रा और ( १२ ) प्रकम्पित होना, कुछ आचार्य इसके स्थान पर वैयावृत्य दोष मानते हैं जिसका अर्थ है साधनाकाल में दूसरे से पगचम्पी, मालिश आदि सेवा लेना । उपासकदशांगसूत्र में सामयिकव्रत के पाँच अतिचार हैं । - १. मनोदुष्प्रणिधान, २. वाचोदुष्प्रणिधान, ३. कायदुष्प्रणिधान ४. सामायिक की समयावधि का ध्यान नहीं रखना, ५. अव्यवस्थित सामायिक करना । १०. देशावकाशिक व्रत अणुव्रतों और गुणव्रतों की प्रतिज्ञा समग्र जीवन के लिए होती है जबकि शिक्षाव्रतों की साधना एक विशेष समय तक के लिए की जाती है । उनकी साधना जीवन में एक बार नहीं, वरन् पुनः पुनः की जाती है । परिग्रह - परिमाणव्रत में परिग्रह की मर्यादा, दिशापरिमाणव्रत में व्यवसाय के कार्य क्षेत्र का सीमांकन और उपभोग - परिभोग परिमाणव्रत में उपभोग - परिभोग की वस्तुओं की मात्रा की सीमा यावज्जीवन के लिए निर्धारित की जाती है । लेकिन जैन-साधना का ध्येय तो संयम को दिशा में सदैव अग्रसर होते रहना है। साथ ही इस बात का विचार भी रखना है कि उस विकास की ओर अग्रसर होने के पूर्व अभ्यास के द्वारा इतनी पर्याप्त क्षमता अर्जित कर ली जावे कि पुनः पीछे की ओर लौटना न पड़े। गृहस्थ उपासक का देशावकाशिक व्रत उपर्युक्त तीनों व्रतों की साधना को व्यापक एवं विराट् बनाने के लिए है | इसके द्वारा साधक गृहस्थ जीवन में रहकर हो साधुत्व की पूर्व तैयारी करता है । देशावका शिकव्रत की साधना में एक-दो या अधिक दिनों के लिए प्रवृत्ति की क्षेत्रसीमा एवं उपभोग - परिभोग सामग्री की मात्रा और भी अधिक सीमित कर ली जाती है और साधक उस निश्चित क्षेत्र सीमा के बाहर न तो स्वयं ही कोई प्रवृत्ति करता है और न करवाता है । उस निश्चित सीमा क्षेत्र में भी साधक त्रस और स्थावर सभी प्रकार की हिंसा का परित्याग कर पूर्ण अहिंसक वृत्ति का पालन करता है । नैतिक दृष्टि से इस व्रत का लक्ष्य अशुभ प्रवृत्तियों के सीमाक्षेत्र में कमी करके जीवन में अनुशासन लाने का प्रयास करना है । आज भी श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा में 'दयाव्रत' के नाम से सामूहिक रूप से इस व्रत के पालन का बहुप्रचलन है । इस व्रत के पाँच अतिचार (दोष) हैं - १. आनयन प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र के बाहर से वस्तु लाना या मँगवाना आदि, २. प्रेष्य प्रयोग — मर्यादित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना १. उपासकदशांग, १।४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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