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________________ जैन, बोद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन व दिगम्बर सभी परवर्ती ग्रन्थों में सामायिक व्रत की समयावधि एक मुहुर्त या ४८ मिनिट मानी गयी है । समयावधि की इस धारणा के पीछे जैनाचार्यों का तर्क यह है कि व्यक्ति के विचार अस्खलित रूप में एक विषय पर ४८ मिनट तक ही केन्द्रित रह सकते हैं, बाद में विचारों में स्खलन आ जाता है । चित्तवृत्ति को उपर्युक्त समय से अधिक देर तक केन्द्रित नहीं रखा जा सकता, उसके बाद चित्तवृत्ति विचलित हो जाती है, अतः यह आवश्यक था कि सामायिक की काल मर्यादा उससे अधिक न हो । २९४ क्षेत्र विशुद्धि ( सामायिक के योग्य स्थान ) - कोलाहल से शून्य एकान्त स्थान ही सामायिक के साधना स्थल माने गये हैं । उपासकदशांग सूत्र के निर्देश भी इसका समर्थन करते हैं । सामान्यतया धर्माराधना के लिए निश्चित किया हुआ घर का एकान्त कमरा, सार्वजनिक पोषधशालाएँ या उपासनागृह, वनखण्ड या नगर के निकट की वाटिकाएँ अथवा जिनालय (मंदिर) सामायिक के योग्य स्थल हैं । संक्षेप में सामायिक साधना का स्थान एकान्त, पवित्र, शान्त एवं ध्यान के अनुकूल वातावरण से युक्त होना चाहिए । उपयुक्त स्थल पर ही सामायिक करना क्षेत्रविशुद्धि है । द्रव्य विशुद्धि - सामायिक में गृहस्थ जीवन की वेशभूषा और आभूषण आदि का त्याग किया जाता था, ऐसा निर्देश उपासकदशांग सूत्र और उसकी टीकाओं से मिलता है । उस युग मात्र अधोवस्त्र (धोती) ही सामायिक की वेशभूषा थी यद्यपि वर्तमान में उत्तरीय भी ग्रहण किया जाता है । कोमल प्रमार्जनिका एवं आसन तो श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों परम्पराओं में ग्राह्य हैं । श्वेताम्बर परम्परा में मुखवस्त्रिका भी सामायिक का महत्त्वपूर्ण उपकरण मानी जाती है । स्वच्छ एवं सादगीपूर्ण उत्तरीय और अधोवस्त्र सामायिक की सामान्य वेशभूषा मानी गयी है । दर्भ, ऊन या सादे वस्त्र पर उत्तर पूर्व दिशाओं में अभिमुख होकर जिन-मुद्रा में खड़े होना या पद्मासन से बैठना ही सामायिक का आसन है । अस्थिर आसन सामायिक का दोष माना गया है । सामायिक की वेशभूषा, उपकरण तथा आसन का सादगीपूर्ण एवं स्वच्छ होना द्रव्यशुद्धि है । भाव -शुद्धि - द्रव्य - विशुद्धि ( साधना के योग्य उपकरण ) काल-विशुद्धि ( साधना के योग्य समय) और क्षेत्र - विशुद्धि (साधना के योग्य स्थल) यह साधना के बहिरंग तत्त्व हैं और भाव-विशुद्धि साधना का अंतरंग तत्त्व है । मन की विशुद्धि ही सामायिक की साधना का सार सर्वस्व है । चित्त की विशुद्धि के लिए दो आवश्यक बातें मानी गई हैं१. अशुभ विचारों का परित्याग करना और २ शुभ विचारों को प्रश्रय देना । जैन विचारधारा में आर्त और रौद्र ये दो अशुभ विचार ( अप्रशस्त ध्यान ) माने गये हैं । इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, सम्भावित तथा अप्राप्त को प्राप्त करने की चिन्ता, आर्त १. योगशास्त्र, ५।११५-११६ । २. आवश्यक मलयगिरी टीका, ४।४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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