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गृहस्थ धर्म
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वार्यता है । इतना ही नहीं, चेतना को अप्रमत्तता एवं चित्तवृत्ति को केंद्रित करने के लिए बाह्य वातावरण भी बहुत महत्त्व रखता है। अतः उसके सम्बन्ध में भी पर्याप्त विचार आवश्यक है। इन्हीं सब तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए हम यहां सामायिक के सम्बन्ध में विचार करेंगे।
सामायिक के विभिन्न पक्ष-प्राणियों के प्रति समत्व, शुभ मनोभाव, संयम और आतरौद्रध्यान का परित्याग ही सामायिक व्रत है।' इस प्रकार समत्व और शुभ मनोभाव ये दो सामायिक व्रत के भावात्मक पक्ष और संयम और अशुभ मनोवृत्तियों का परित्याग ये दो सामायिक व्रत के निषेधात्मक पक्ष हैं । गृहस्थ के लिए सामायिक व्रत इन दोनों पक्षों का सम्यक् परिपालन करना आवश्यक है। इसी प्रकार गृहस्थ साधना की दृष्टि से भी सामायिक के द्रव्य सामायिक और भाव सामायिक ऐसे दो पक्ष भी होते है । द्रव्य सामायिक अर्थात् सामायिक का बाह्य स्वरूप या क्रियाकाण्डात्मक पक्ष भाव सामायिक का तात्पर्य चित्तवृति की शुद्धि है। व्यवहार और निश्चय दृष्टि से भी सामायिक के दो रूप होते हैं । समत्वभाव और आत्म-अवस्थिति (चेतना की जागरूकता) निश्चय या परमार्थ दृष्टि से सामायिक है जबकि हिंसक व्यापारों से निवृत्ति तथा नियमों का परिपालन व्यवहार सामायिक है । सामायिक के लिए चार विशुद्धियाँ मानी गई हैं- १. काल-विशुद्धि, २. क्षेत्र-विशुद्धि, ३. द्रव्य-विशुद्धि और ४. भाव-विशुद्धि ।
काल विशुद्धि-श्रमण साधक तो सदैव ही सामायिक की साधना में रत रहता है, लेकिन गृहस्थ साधक के लिए इसकी काल-मर्यादा निश्चित की गई है । सामायिक की साधना का काल-निर्णय समय-विशुद्धि के लिए आवश्यक है । जैन दार्शनिकों का कथन है कि समय का काम समय पर ही करना चाहिए, असमय या कुसमय पर की गई साधना अधिक फलवती नहीं होती। सामायिक का साधना-काल उभय संध्या-काल अर्थात् रात्रि एवं दिवस की दोनों सन्धि वेलाएँ मानी गई हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने इसी मत का समर्थन किया है। आचार्य कुन्थुसागरजी ने अपने बोधामृतसार में त्रिकाल अर्थात् प्रातःकाल, मध्यान्ह काल और सायंकाल सामायिक व्रत करने का विधान किया है । उपासकदशांगसूत्र के कुण्डकोलिक अध्याय में मध्यान्ह में भी सामायिक करने का निर्देश है । यद्यपि यह विवाद महत्त्वपूर्ण नहीं है। दोनों सन्धिकाल में सामायिक करना निम्नतम सीमा है, अधिकतम कितनी करे यह साधक की क्षमता पर निर्भर है । हाँ, अयोग्य समय पर सामायिक करना अशुभ माना गया है । सामायिक के लिए काल-विशुद्धि आवश्यक है । यद्यपि आगम साहित्य में समयावधि का विधान नहीं है, तथापि श्वेताम्बर
१. उद्धृत-सामायिक सूत्र , पृ० ३७ । ३. पुरुषार्थसियुपाय, १४९ ।
२. उत्तराध्ययन, ११३१ । ४. बोधामृतसार, ४९२ ।
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