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गृहस्थ धर्म
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में सहायक न होकर उल्टे बाधा उत्पन्न करता है, इसलिएअनर्थ दण्ड हो है । (ब) कषाय -- क्रोधादि भाव प्रायः सम्यक् जीवन के किसी उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक नहीं होते हैं, अतः अनर्थदण्ड है और इसलिए अनाचरणीय भी है । ( स ) विषय - इन्द्रियों की अपने विषयों की प्राप्ति की वासना ही सारी पाप प्रवृत्तियों का कारण है और मनुष्य में विवेकशून्यता को जन्म देती है । ( द ) निद्रा - अधिक निद्रा भी आलस्य काही चिन्ह है और आलस्य स्वयं में ही अनर्थदण्ड है । (ई) विकथा -- लोगों की भलाईबुराई की निष्प्रयोजन प्रवृत्ति लोगों में अधिक देखी जाती है लेकिन इसमें उपलब्धि कुछ भी नहीं होती, वरन् हानि होने की सम्भावना ही अधिक रहती है । व्यक्तियों में अकारण ही वैमनस्य उत्पन्न होने में यह प्रमुख कारण है, अतः अनर्थदण्ड के रूप में अनाचरणीय है ।
इस प्रकार अपने भेदोपभेद की विस्तृत व्याख्या सहित यह चार प्रकार का अनर्थ - दण्ड गृहस्थ साधक के लिए अनाचरणीय कहा गया है । अनर्थदण्ड की प्रवृत्तियों से बचने के लिए जहाँ उपर्युक्त प्रवृत्तियों से निवृत्त होना आवश्यक है, वहीं उन सामान्य दोषों के बारे में भी जागृत रहना चाहिए जो साधक को अनर्थदण्ड की ओर ले जाते हैं । अर्थदण्ड विरमण व्रत के पाँच दोष हैं । "
१. कन्दर्प — कामवासना को उत्तेजित करने वाली चेष्टाएँ करना अथवा काम भोग सम्बन्धी चर्चा करना ।
२. को कुच्य -- हाथ, मुँह, आँख आदि से अभद्र चेष्टाएँ करना ।
३. मौखर्य - अधिक वाचाल होना, शेखी बघारना, तथा बातचीत में अपशब्दों का उपयोग करना आदि ।
४. संयुक्ताधिकरण - हिंसक साधनों को अनाश्वयक रूप से संयुक्त ( तैयार ) करके रखना जैसे बंदूक में कारतूस या बारूद भरकर रखना । इनसे अनर्थ की सम्भावना अधिक बलवती हो जाती है । कुछ विचारकों के अनुसार हिंसक शस्त्रों का निर्माण, संग्रह और क्रय-विक्रय भी दोषपूर्ण हैं ।
५. उपभोगपरिभोगातिरेक - भोग्य सामग्री का आवश्यकता से अधिक संचय करना । क्योंकि ऐसा करने पर दूसरे लोग उसके उपभोग से वंचित रहते हैं तथा सामाजिक जीवन में अव्यवस्था एवं असंतुलन पैदा होता है ।
चार शिक्षा व्रत
सामायिक व्रत
सामायिक जैन आचार- दर्शन की साधना का केन्द्र-बिन्दु है यह साधु-जीवन का
१. उपासकदशांग, ११४८ ।
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