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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शननों का तुलनात्मक अध्ययन अहितकर द्रव्यों का सेवन करना, व्यर्थ चिन्ता करना आदि । निरर्थक प्रवृत्तियाँ अविवेकी अतः जैनधर्म में गृहस्थ उपासक के लिए श्रावक के अनर्थदण्डविरमणव्रत में साधक निष्प्रयोजन पापपूर्ण प्रवृत्तियाँ द्योतक हैं, निषेध है और अनुशासनहीन जीवन की निष्प्रयोजन पापपूर्ण प्रवृत्तियों का निष्प्रयोजन पापपूर्ण प्रवृत्तियों का परित्याग करता है । चार प्रकार की है' | २९० १. अपध्यान ( अशुभ चिन्तन) - इसके दो रूप हैं (अ) आर्तध्यान जो चार प्रकार का है - १. इष्टवियोग की चिन्ता, २. अनिष्टसंयोग की चिन्ता, ३. रोग - चिन्ता, ४. निदान अथवा किसी अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की तीव्रेच्छा । ( ब ) रौद्र ध्यान — क्रूरतापूर्ण विचार करना जैसे मैं उसे मार डालूँगा, उसके धन का नाश करवा दूँगा आदि । २. पापकर्मोपदेश ( पापकर्म करने की प्रेरणा ) - जिस प्रेरणा को पाकर या जिस कथन को सुनकर व्यक्ति पापकार्य करने के लिए प्रेरित हो, वह पाप कर्मोपदेश 1 व्यक्तियों अथवा देशों को लड़ने के लिए प्रेरित करना अथवा व्यक्तियों को हिंसा, चौर्य कर्म, पर-स्त्री एवं वेश्यागमन आदि अशुभ प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होने के लिए प्रेरणा देना पापकर्मोपदेश है । ३. हिंसक उपकरणों का दान - व्यक्ति अथवा राष्ट्रों को हिंसक शस्त्रास्त्र प्रदान करना हिंसा की सम्भावना को बढ़ावा देना है, अतः यह भी अनर्थदण्ड है । हिंसक शस्त्र प्रदान करना अन्याय के प्रतिकार का सही उपाय नहीं है । जो व्यक्ति अथवा राष्ट्र अन्याय के विरोध में स्वयं खड़ा नहीं होता और मात्र हिंसा के साधन प्रदान कर यह समझता है कि मैं न्याय की रक्षा करता हूँ, वह न्याय की रक्षा नहीं करता वरन् उसका ढोंग करता है । --- ४. प्रमादाचरण --- प्रमादाचरण जागरूकता का अभाव है । यह चेतना को नींद है, चेतना का स्वकेन्द्र से विचलन है, आत्मा के समत्व का भंग हो जाना है । यह एक प्रकार की आध्यात्मिक अन्धता है । जैनागमों में इसके ५ भेद वर्णित हैं - १. अहंकार २. कषाय, ३. विषय- चिन्तन, ४. निद्रा और ५. विकथा । पाँचों प्रमाद व्यक्ति की चेतना में ऐसा विकार उत्पन्न करते हैं जिससे व्यक्ति की चेतना की जागरूकता समाप्त हो जाती है । व्यक्ति अपने आप में नहीं जीता है । वह स्वयं का स्वामी नहीं होता है । वह यथार्थ दृष्टा नहीं रह पाता, जो कि उसका स्व-स्वभाव है । आत्मा का साक्षात्कार केवल अप्रमत्तदशा में ही सम्भव है । जबकि प्रमाद उस अप्रमत्तता का सबसे बड़ा बाधक तत्त्व है | ( अ ) अहंकार ( मद) - अपने रूप-सौन्दर्य, बल, ज्ञान अथवा जाति का अहंकार व्यक्तित्व का विकृतचित्र प्रस्तुत करता है । अहंकार व्यक्ति की आध्यात्मिक उपलब्धियों १. आर्त रौद्रमयध्यानं पापकर्मोपदेशिता । हिंसोपकरणादि दानं च प्रमदाचरणं तथा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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